मिर्जापुर
मां विंध्यवासिनी की नगरी मिर्जापुर की मिट्टी,जल,वायु में पले, बढ़े हिंदी जगत के मूर्धन्य विद्वान साहित्य मनीषी आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की कर्मस्थली रमईपट्टी मिर्जापुर रही, जहां पर आपने सन 1893 से 1908 (15 वर्षों) तक रहकर हिंदी को हिंदी का स्वरूप प्रदान किया l जो आज भी सराहनीय व प्रसंशनीय है l

आपका जन्म शरद पूर्णिमा के दिन बस्ती जिला के अगौना ग्राम में सन 1884 में हुआ था l आपके पितामह (बाबा) का नाम पंडित शिवदत्त शुक्ल था, जो 1857 में अवध के नवाब आसफ उल्लाह के सेनापति थे l आपके पिता का नाम चंद्रबली शुक्ल था जो सन 1890 में हमीरपुर (राव) तहसील में सुपरवाइजर कानूनगो के पद पर थे l आप अपने साथ अपने पुत्र पंडित रामचंद्र शुक्ल जी को भी ले आए , जिनकी अवस्था उस समय 6 वर्ष थी l अंग्रेज शासन था हमीरपुर में मदरसे विद्यालय थे, इसी विद्यालय में आपको कक्षा 01 में दाखिला दिलवाया गया l आपकी शिक्षा उर्दू ,फारसी ,अरबी से शुरू हुई l जिस मदरसे में मौलवी साहब उर्दू फारसी अरबी की शिक्षा दिया करते थे, उसी के एक छोर में पंडित गंगा प्रसाद तिवारी हिंदी का अभ्यास कराते थे l जो हिंदी के मर्मज्ञ विद्वान थे l आप उर्दू फारसी अरबी एवं हिंदी के ज्ञाता हुए l सन 1893 में पिताजी का स्थानांतरण मिर्जापुर सदर कानूनगो के पद पर हुआ l उस समय आपकी उम्र (09) वर्ष थी । जनपद मिर्जापुर के जिलाधिकारी विल्ढम साहब थे, जिन्होंने विल्ढम फाल का निर्माण करवाया था ।
सन 1893 में रमईपट्टी मे स्थित एंगलो संस्कृत जुबली इंटर स्कूल में कक्षा 6 में दाखिला दिलवाया गया, जहां से आपने सन 1898 में कक्षा 8 प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया । तत्पश्चात सन 1859 मुकेरी बाजार में स्थित लंदन मिशन स्कूल में कक्षा 9 में दाखिला दिलवाया गया, जहां से आपने सन 1900 में हाई स्कूल भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। उस समय उर्दू फारसी अरबी की शिक्षा विद्यालय में दी जाती थी, ऑफिस में भी उर्दू फारसी में कार्य होता था। आपने इन भाषाओं के साथ राष्ट्रभाषा हिंदी को अपनाया, रमई पट्टी मिर्जापुर में हिंदी उपेक्षित थी हिंदी बोलने पर मोहल्ले वासी उनकी शिकायत उनके पिता से करते थे आपके मन में हिंदी के प्रति प्रेम निष्ठा के बीज हमीरपुर में प्रारंभिक शिक्षा देने वाले पंडित गंगा प्रसाद तिवारी जी ने रोपित कर दिया था । यही कारण था कि आप अपने पिता के विचारों से कम पड़ोस के पंडित बिंदेश्वरी प्रसाद तिवारी के विचारों से अधिक प्रभावित हुए, जो संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान थे । रमईपट्टी मिर्जापुर में एक और प्राकृतिक छटा थी तो दूसरी ओर हिंदी उपेक्षित दृष्टि से देखने का माहौल था। दोनों मिलकर एक नया रंग हिंदी साहित्य सेवा का रूप आपके मन में भरा आप हृदय से कवि, मस्तिष्क से आलोचक, जीवन से काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक पद पर रहे । जिस साहित्यिक पौधे को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने लगाया, महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने सींचा, उस साहित्यिक पौधे को चतुरमाली के रूप में काट छाट कर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आगे बढ़ाया । यह आपकी साहित्यिक विद्वता थी।
आचार्य शुक्ल जी की आलोचना उनके निबंध में भारत की प्यारी- प्यारी माटी की सोंधी सोंधी सुगंध मिलती है, आपकी आलोचना में अमराश्यो की बहार, कोयल की कूक को सृजनात्मक साहित्य के स्पर्श से पुलकित कर देते हैं । अध्ययन की ओर उन्मुख देखकर उच्च शिक्षा के लिए आपके पिता ने वकालत पढ़ने के लिए प्रयागराज भेजा आपकी रुचि कानून की क्रूर पुस्तकों में नहीं लगी आपके मन मस्तिष्क में साहित्य का सौंदर्य समाहित था सन 1903 में मिर्जापुर वापस चले आए। रमई पट्टी में रहकर चार व्यक्तियों के संपर्क में आए। जिससे आपकी प्रतिभा प्रस्फुटित हुई। आप पड़ोस के पंडित बिंदेश्वरी प्रसाद तिवारी, संस्कृत के मर्मज्ञ विद्वान, द्वितीय राम गरीब चौबे, अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान, तृतीय बाबू बलभद्र सिंह (डिप्टी कलेक्टर) आगरा निवासी रमईपट्टी में किराए के मकान में रहते थे। नित्य सांयकाल रामायण, गीता,पुराण, महाभारत का पाठ होता था। आचार्य शुक्ल जी भी शामिल रहा करते थे। चतुर्थ बद्री नारायण चौधरी प्रेमघन जिनका आवास रमई पट्टी से एक किलोमीटर दूर तिवरानी टोला पर स्थित था- भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के शिष्य थे, उनका आवास साहित्यिक केंद्र बना था। जिसमें प्रतिदिन सांय 5 से 7 बजे काशी प्रसाद जायसवाल, भगवान दास हालना, बद्रीनाथ गौङ, उमाशंकर दिंवेदी, लक्ष्मी शंकर मिश्र, पंडित परमानंद भट्टाचार्य अपना साहित्यिक योगदान देते थे। आचार्य शुक्ल भी नियमित साहित्यिक गोष्टी में आने- जाने लगे। सन 1900 (16 वर्ष) की अवस्था पहुंचते पहुंचते हिंदी प्रेमियों की एक अच्छी खासी मंडली आपको मिल गई। रमईपट्टी में रहकर आपने विज्ञान, दर्शनशास्त्र, इतिहास मनोविज्ञान राजनीति शास्त्र समाजशास्त्र भारतीय काव्यशास्त्र का विस्तृत अध्ययन प्राप्त कर लिया। अपने आप को पूर्ण लेखक मानने लगे। आपकी रचनाएं आनंद कदंबिनी, सरस्वती पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी।
प्रेमघन नगर के जाने-माने पुराने रईस हिंदुस्तानी व्यक्ति थे उनके यहां कजली, होली हफ्तो तक चलता था, होली उत्सव बसंत पंचमी से शुरू हो जाता था जिसमें ठंडई भांग का माहौल बना रहता था । आगंतुकों को चांदी की तस्तरी में जलपान कराया जाता था। एक दिन सांयकाल एक व्यक्ति आया कहा मेरी पुत्री की शादी है हिंदी में कोई श्लोक बताएं जिसे निमंत्रण कार्ड पर छपवा दू। उस दिन आचार्य शुक्ल भी साहित्यिक गोष्ठी में मौजूद थे। प्रेमघन जी ने सबसे कहा आप सभी मिलकर ले आए। दूसरे दिन सभी साहित्यकारों का पढ़ने के पश्चात उन्हे आचार्य शुक्ल जी का हिंदी श्लोक पसंद आया। आपने गणेश जी के ऊपर श्लोक लिखा-
” विश्व विधान विनोद रत माया जाया संग ।
मंगल मय मंगल करहु दरसा वहु-वहु रंग।।
इस हिंदी श्लोक को पढ़कर प्रेमघन इतना मुग्ध हुए और पूछे बेटा तुम्हारा नाम,आपने बताया मेरा नाम पंडित रामचंद्र शुक्ल है मैं रमईपट्टी में रहता हूं। सन 1884 से 1908 तक आप पंडित रामचंद्र शुक्ल थे। सन 1909 मे आपने लिखा ‘कविता क्या है’ इस पर महावीर प्रसाद द्विवेदी ने आपको आचार्य का स्थान दिया। आप सन 1909 से 1941 तक आचार्य रामचंद्र शुक्ल नाम से विख्यात हुए। आप सन 1893 से 1908 तक (15 वर्ष) रमईपट्टी मिर्जापुर में रहे। सन 1908 में हिंदी शब्द सागर के संपादक होकर मिर्जापुर से काशी गए, वहां आपने हिंदी कोष का निर्माण किया। आपने 78405 शब्दों को संकलित किया जो सन 1927 को छः खंडो में प्रकाशित हुआ। यदि आचार्य शुक्ल न होते तो हिंदी कोष ना होता। डॉक्टर श्याम सुंदर दास ने कहा कि हिंदी शब्द सागर आचार्य शुक्ल जी के परिश्रम, विद्वता और विचारशीलता का फल है। इतिहास, दर्शनशास्त्र, भाषा व्याकरण साहित्य विषयों का समाचीन विवेचन आप द्वारा हिंदी कोष में है। हिंदी कोष को आचार्य शुक्ल ने बनाया और शुक्ल जी को कोष ने। आप नागरी प्रचारिणी सभा की पत्रिका का संपादन कार्य भी करते रहे। इस अवधि में आपने मनोविकारों का विकास शीर्षक लेख माला लिखकर विश्व विख्यात कृति का अनुवाद किया तथा हिंदी साहित्य का इतिहास ग्रंथ की रूपरेखा इसी चरण में तैयार किया। नागरी प्रचारिणी सभा आचार्य शुक्ल जी के पुस्तकों की रॉयल्टी रु. 1200 वार्षिक देती थी।आप काशी में रहकर जनपद मिर्जापुर के मिट्टी,जल, वायु को ना भूल पाए हमेशा मिर्जापुर के विकास के बारे में सोचते लिखते थे। आपका शरीर काशी में था आत्मा मिर्जापुर में बसती थी यहां के नदी नाले पर्वतीय स्थल, झरने, विंध्य पर्वत, अष्टभुजी, कालीखोह से बहुुत लगाव था। आपने लिखा है- यधपि मैं काशी में हूं, मेरी हार्दिक इच्छा है कि जब मेरे प्राण निकले तो मिर्जापुर का मानचित्र मेरे नेत्रों के सामने हो।
दूसरी तरफ कविता के माध्यम से अपने प्रेम, लगाव को दर्शाया है-
“एहो! वन, बंजर, कछार, हरे भरे खेत!
विटप, विहंग! सुनो, अपनी सुनावें हम।
छूटे तुम, तो भी चाह चित्त से न छूटी यह
बसने तुम्हारे बीच फिर कभी आवें हम।
सड़े चले जा रहे हैं बँधो अपने ही बीच,
जो कुछ बचा है उसे बचा कहाँ पावें हम ।
1916 में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना किया। जो सन 1919 में बनकर तैयार हुआ। विश्वविद्यालय में डॉक्टर श्याम सुंदर दास को हिंदी विभागाध्यक्ष बनाया तथा हिंदी माध्यम से पठन-पाठन हेतु महामना जी को ऐसे व्यक्ति की तलाश थी जो हिंदी का महारथी हो। सन 1918 में महामना जी ने जब आचार्य शुक्ल जी से बात किया तो आपने दोहरा कार्य करने से इनकार कर दिया। एक दिन महामना जी सांयकाल 5:00 बजे आचार्य शुक्ल जी के आवास दुर्गाकुंड पर गए, शुक्ल जी सभा में गए थे उनकी पत्नी आवास पर थी उनसे कहा मैं महामना पंडित मदन मोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय का संस्थापक लक्ष्मी की याचना करके विश्वविद्यालय का निर्माण किया है, अब सरस्वती पुत्र की याचना हेतु आपके पास आया हूं उन्हे आप विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम से पढ़ाने हेतु अनुमति प्रदान करें। पत्नी से महामना जी की इस याचना से अभिभूत हो उनके व्यक्तित्व में ऐसी चमक उभरी आचार्य शुक्ल जी को दोहरा कार्यभार लेना ही पड़ा ।
आप नागरी प्रचारिणी सभा का कार्य घर पर ही करने लगे। आपके श्रमिक स्नेह को धूप हवा देने वाली आपकी धर्म पत्नी सावित्री देवी थी । विश्वविद्यालय में आप बी.ए. कक्षाओं को हिंदी पढ़ने लगे।एम.ए. का हिंदी पाठ्यक्रम भी तैयार किया, जिससे एम.ए. की कक्षाएं संचालित होने लगी। जब आप विश्वविद्यालय में रहे उस समय आपको रुपए 150 मासिक वेतन मिला करता था। 1936 में अलवर के राजा जय सिंह ने आपको हिंदी सचिव पद के लिए आमंत्रित किया साथ में बंगला, भोजन, नाश्ता ,वस्त्र, नौकर सब निशुल्क । आपकी दैनिक क्रिया समय अनुसार थी आप जानते थे कि राजा के यहां जाने से काफी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा पत्नी को जब मालूम हुआ पत्नी ने बहुत समझाया और कहा आप यहां इतने कम वेतन पर है राजा आपको 1500 मासिक पर आमंत्रित किए हैं साथ में सब निशुल्क आपको बाजार से कुछ नहीं लेना है आप जरूर जाए पत्नी के अधिक हट करने पर आप महामना जी से अनुमति मांगने के लिए गए, महामना जी आपकी बातों को सुनकर मुस्कुराए और कहा तुम्हें जरूर जाना चाहिए लेकिन राजा तुम्हें नहीं चाहेगा तुम राजा को नहीं चाहोगे राजा के यहां वही विडंबना, जिससे आप वहां जाना नहीं चाहते थे कुछ दिनों तक पढ़ाने के पश्चात आप वापस काशी चले आए। जिस कमरे में रहते थे वहा एक पत्र लिखकर रख दिया ।
चिथड़े लपेटेंगे चने चबायेंगे, चौखट चढ़,
चाकरी न करेंगे चौपट चांडाल की ।।
अर्थात (फटा पुराना वस्त्र पहनकर, चौखट पर बैठकर, चना खाकर व्यतीत कर लूंगा , ऐसे राजा महाराजा की नौकरी नहीं करूंगा )
आप काशी आने पर हफ्तों महामना जी से नहीं मिले महामना जी को जब मालूम हुआ आपको आदर के साथ बुलाया और कहा हमने तुम्हें विश्वविद्यालय से निष्कासित नहीं किया है डॉक्टर श्याम सुंदर दास अवकाश ले रहे हैं अब तुम हिंदी विभागाध्यक्ष बन जाओ । हिंदी विभाग अध्यक्ष का निर्वहन आपने 1937 से 1941 तक किया।
आप दमा से ग्रस्त रहते थे। हिंदी जगत का यह सितारा 2 फरवरी 1941 को सदैव के लिए अस्त हो गया इन्हीं शब्दों के साथ अपने पूर्वज बड़े बाबा को श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा हूं ।
चंद्रबली के पुत्र ग्राम अगोनावासी ।
ऋणि रहेंगे चिंतामणि के भाषा भाषी।।
प्रस्तुति –
राकेश चंद्र शुक्ल
प्रबंधक
आचार्य रामचंद्र शुक्ल शिक्षण संस्थान रमई पट्टी मिर्जापुर
मो.- 9451648197, 7388388229