मैंने जो महसूस किया
मौजूदा दौर में कविता के विभिन्न रूपों में गजल सर्वाधिक लिखी, पढ़ी, सुनी और पसंद की जाने वाली विधा बन चुकी है। दुष्यंत कुमार और उनके बाद अदम गोंडवी ने हिंदी कविता को गजल के रूप में वह सौगात सौंप दी है जो युगों-युगों तक याद की जायेगी । यद्यपि हिंदी गजल दुष्यंत कुमार के आने से पहले से ही शुरू हो चुकी थी , लेकिन प्रभावी ढंग से उसकी शुरुआत दुष्यंत कुमार से ही मानना ठीक है , ऐसा मैं मानता हूं । उसकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ने वाली , और न उसके चाहने वालों की संख्या कभी घटने वाली है । दुष्यंत कुमार ने उर्दू से हिंदी में ग़ज़ल को ले आने के लिए जो संघर्ष किया , वह हमेशा याद किया जायेगा । उनके बाद अदम गोंडवी ने गजल को आम आदमी की कविता ही बना दिया। जिस आम पाठक का मन मुक्त छंद की अति बौद्धिक वैचारिकी से नहीं जुड़ पा रहा था , उचाट हो चुका था ; वह फिर से कविता में रुचि लेने लगा । वरना वह तो पत्र -पत्रिकाओं में छपने वाली वस्तु होकर रह गयी थी। यही कारण है कि कितने ही कवि , कविता छोड़कर गजल की दुनिया में आने लगे, क्योंकि वह केवल अकादमिक नहीं बने रहना चाहते थे। वे भी जनता के सीधे सम्पर्क में आना चाहते थे। दुष्यंत कुमार स्वयं इसका पुख्ता उदाहरण हैं । ग़ज़लकार से पहले उनकी ख्याति मुक्त छंद कवि के रूप में ही थी । अतीत पर गौर करें तो आप देखेंगे कि हिंदी की काव्यात्मकता में हमेशा विकास हुआ है। वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीतिकाल, आधुनिक काल, फिर छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, मुक्तछंद, नई कविता वगैरह ।
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इसी प्रकार जब हिंदी गजल का परिवार बड़ा हुआ तो यहां से भी कई धाराएं फूट पड़ीं । उर्दू क्षेत्र से आने के कारण हिंदी गजल पर उर्दू का असर स्वाभाविक रूप से रहा। इसलिए कुछ गजलकार उर्दू गजल को ही देवनागरी लिपि में उल्था करके उसे ही हिंदी गजल मान बैठे । इससे हिंदी गजल में भी कलावाद यानी रूपवाद ने स्थान बना लिया। इसमें मध्यवर्ग की जिंदगी की हलचलें ज्यादा देखने को मिलीं । गायकों ने भी इसी गजल को गाया। शोहरत लूटी और पैसा कमाया। कुछ गजलकार पैसे के लिए मंचीय हो गये। लोगों का मनोरंजन करने लगे । कवि सम्मेलनों और मुशायरों में हल्की-फुल्की चीजें परोसने लगे। तालियां बटोरने लगे। अपनी जिम्मेदारियां भूल गये , जिससे ऐसी गजलों में आम लोगों की जिंदगी के मसअले गंभीरता के साथ कम ही देखने को मिले। हिंदी गजल की प्रकृति उर्दू गजल से भिन्न है। इसका समाज भिन्न है, सरोकार भिन्न है, लिपि भिन्न है , शब्दावली भिन्न है ,काव्य – संस्कृति भिन्न है, यहां तक कि तलफ्फुज भी भिन्न है । हिंदू – मुस्लिम एक साथ रहते जरूर हैं , और उनकी सामाजिक , राष्ट्रीय समस्यायें भी एक हैं ,लेकिन धार्मिक, पारिवारिक, रीति – रिवाज सम्बंधी समस्यायें काफी अलग-अलग हैं। साथ ही हिंदी – गजल की अपनी एक पुख्ता परंपरा भी है , जिसे कुछ प्रगतिशील – जनवादी ग़ज़लकारों ने महसूस किया और समझा । इसी के चलते वे गरीब तबके के लोगों, किसानों, मजदूरों , छोटे कारोबारियों, कार्मिकों की जिंदगी में झांकने की दिशा में आगे बढ़े । उन लोगों की जिंदगी में जो सत्ता के लिए केवल वोट बैंक थे । सत्ताधीशों ने जिनकी जिंदगी की बेहतरी के लिए कभी कुछ सोचा ही नहीं था , और आज भी नहीं सोचते । समाज में लूट-पाट , मार-काट मची रही , लेकिन सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। रेंगती भी कैसे? व्यवस्था को पता है, आतंक फैलाने वाले या तो उसके गुरगे हैं, या उच्च वर्ग के दबंग लोग। महंगाई, बेरोजगारी और अब तो कोरोना जैसी तरह-तरह की जानलेवा बीमारियों की मार से जनता कितनी त्रस्त है , इसकी सुधि लेने वाला कोई नहीं। समस्यायें आये दिन सुरसा की तरह मुंह फैलाए जा रही हैं , लेकिन निदान दूर-दूर तक दिखता नहीं। फिर भी — ” लंबी है यह सियाहरात जानता हूं मैं / उम्मीद की किरन मगर तलाशता हूं मैं । फिलहाल इस किताब ’ गजल एकादश’ में उम्मीद की किरण तलाशने वाले ऐसे ही 11 गजलकारों की गजलों को लिया जा रहा है , जो तमाम तरह की सामाजिक – सांस्कृतिक समस्याओं को ग़ज़लों में प्रमुखता से उठा रहे हैं , और उनके परिसर को बड़ा कर रहे हैं । उनमें से यहां एक ओर यदि हमारे वरिष्ठ साथी गजलकार कमल किशोर श्रमिक हैं तो दूसरी ओर युवा गजलकार पंकज कर्ण भी। मेरा यह दावा नहीं है कि ये गजलें ज़रूरत से ज़्यादा ‘ पालिश्ड ‘ हैं , लेकिन तग्गजुल इनमें भरपूर है। इन गजलों में सत्ता – संघर्ष के चेहरे हैं , खेत – खलिहान , मेड़-डांड के हालचाल हैं , समस्यायें हैं, गरीब लोगों की मुसीबतें हैं , रोजमर्रा की उलझनें हैं, उच्चवर्ग और कुलीन समाज द्वारा फैलाई गई सामाजिक गैर – बराबरी , सांप्रदायिक कड़वाहटें और भ्रांतियां हैं, तथा सुख-चैन से बेदखल होती जिंदगी की कशमकशें हैं । इसके लिएहम अपने सभी साथी गजलकारों के प्रति आभार व्यक्त करते हैं , जिन्होंने बहुत ही कम समय में हमें अपनी चुनिंदा गजलें उपलब्ध कराईं । अंत में प्रख्यात आलोचक – कवि डाॅ. जीवन सिंह के प्रति हार्दिक धन्यवाद व्यक्त करता हूं , जिन्होंने इस पुस्तक की भूमिका लिखने का हमारा आग्रह स्वीकारा । इसी के साथ हिंदी – श्री पब्लिकेशन एवं आनंद ॓अमित ॔ जी का भी धन्यवाद , जिन्होंने इस किताब में रुचि लेते हुए इतने कम समय में इस किताब का प्रकाशन किया ।
डी एम मिश्र