पुस्तक समीक्षा
साहित्यिक गतिविधियों की बात करें तो यह सक्रिय व सचेत साहित्यिक कर्म का प्राथमिक व सबसे जरूरी दायित्व होता है कि वह अपने समय को रचे भी व उसकी समीक्षा भी करे, इस उपक्रम में वह समय व सत्ता के समक्ष सवाल खड़ा करे, हम समय के उस काल खंड के साक्षी बनने को अभिशप्त हो रहे हैं जिसमे वाज़िब सवालों को उनके पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दिया जा रहा, यह अजीब समय है जिसमे निष्ठाएं बदल रहीं, लोग चुप्पी साध रहे, और जो सवाल खड़ा करने का साहस(दुस्साहस) कर रहा सत्ता उसे अपना शत्रु घोषित कर उसके जान की दुश्मन बन जा रही, प्रतिबद्धताओं की इस अग्नि परीक्षा के त्रासद समय मे डीएम मिश्र का यह ग़ज़ल संग्रह आता है– लेकिन सवाल टेढ़ा है– अर्थात कवि साहस के साथ यह खुद घोषित करता है कि मेरी ग़ज़लों में उठाये गए सवाल टेढ़े हैं,इन सवालों का जवाब ढूढने में सत्ता व समय की सुविधापरस्ती को दिक्कतें आएंगी, आखिर डीएम मिश्र सरीखे जिम्मेदार कवियों को अपने समय समाज को बचाने के क्रम में खुद को भी बचाना है कि आने वाली पीढियां जब आज के समय का आकलन करें तो कमसे कम यह जान पायें कि किसी गुजरे हुए मरे समय मे कोई संवेदनशील कवि आखिर क्या रच कर जीवित बचा होगा। डीएम मिश्र लगातार अपनी ग़ज़लों में प्रतिरोध रचने का उपक्रम करते हैं वे सत्ता ही नहीँ धर्म, समाज, समुदाय के जिम्मेदार लोगों के सामने असंगतियों, विसंगतियों के सिलसिले में लगातार सवाल खड़े करते रहे हैं। सही मायने में डीएम मिश्र अपनी ग़ज़लों के द्वारा जंग लड़ते हुए दिखते हैं, अपनी अटूट निष्ठा, स्पष्ट वैचारिकी व बेबाक टिप्पणियों से सर्वहारा व शोषित वर्ग के पक्ष में जोखिम उठा कर भी लगातार खड़े मिलते हैं, इस संदर्भ में हंगरी के क्रांति कवि सांडोर पेटाफी की ये पंक्तियां सर्वथा उपयुक्त हैं– “मेरी कविताएं/युद्ध भूमि में/ युद्धरत जवान हैं/ मैं कविताओं से युद्ध लड़ता हूँ लोगों”। डीएम मिश्र की भी ग़ज़लें मानो युद्धरत जवान हैं।
हिंदी ग़ज़ल का प्रादुर्भाव जब भी हुआ हो लेकिन इसकी व्यवस्थित यात्रा दुष्यंत कुमार के”साये में धूप ” से होती है, आपातकाल के क्रूर कालखण्ड में जब सत्ता की बर्बरता चरम पर थी, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरेदारी थी, तब बड़े सांकेतिक तरीके से दुष्यंत कुमार ने उस समय को रचा, वाज़िब सवाल उठाये व सत्ता को कटघरे में खड़ा किये, यह कह सकते हैं कि हिंदी ग़ज़ल की व्यवस्थित शुरुआत ही प्रतिरोध के स्वर से हुई है, प्रतिरोध की ललकार व फुफकार अदम की ग़ज़लों में जबरदस्त तुर्शी व तल्खी के साथ मिलती है, डीएम मिश्र प्रतिरोध की उसी परम्परा से आते हैं लेकिन उनका अदम का साथ कुछ मीलों तक का है यह साथ मंजिल तक का नहीं क्योंकि डीएम मिश्र में अदम के प्रतिरोध की प्रवृत्तियां तो मिलती हैं लेकिन डीएम मिश्र समूची जीवन वृत्तियों के गायक हैं उनके यहां जीवन की लगभग समस्त वृत्तियां जागृत मिलती हैं, जीवन के हर परिसर से उनका सघन सम्वाद है, धर्म, समाज, परम्परा, रिश्ते, अर्थ, बाज़ार, समुदाय, परिवार, सहित उन सभी कारकों का उनके यहां जिक्र मिलता है जिनसे जीवन सत्ता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित होती है.
डीएम मिश्र की काव्य प्रवृत्ति की पड़ताल की जाय तो उसके केंद्र में स्वाधीनता बोध, जनपक्षधरता व प्रेम है, इन्ही मूल प्रवृत्तियों का भाष्य वे अपनी ग़ज़लों में लगातार करते हैं, अपने गहन जीवन बोध व प्रखर आलोचनात्मक चेतना के चलते वे छद्म के तिलिस्म का पर्दाफाश करने में सक्षम होते हैं, हर लोक लुभावनी कार्यवाहियों के पीछे छिपे असली चेहरे की शिनाख्त कर उसके सच को उजागिर करते हैं, उनकी भाषा जितना कहती है उससे अधिक देखती है, उनकी ग़ज़लों को पढ़ने से हमारी देखने की शक्ति बढ़ती है इन अर्थों में डीएम मिश्र की ग़ज़लें दृष्टिवर्ती रचनाएं हैं।
हर रचना की ज़मीन अलग अलग होती है कवि को अपने अनुभव दीप्त कदमों से उसकी ज़मीन तक जाना होता है, इसी लिए एक ही विषय वस्तु पर विभिन्न कवियों की रचनाओं की प्रभावोत्पादकता भिन्न भिन्न होती है, डीएम मिश्र की ग़ज़लों में उनका जीवनानुभव झलकता है, उनमे गज़ब का कलात्मक संयम है, तमाम संवेदनशील व ज्वलन्त मुद्दों को ग़ज़ल में चरितार्थ करते हुए भी उनकी भाषा लड़खड़ाती नहीं व वे अपनी ग़ज़लों को नारे की शक्ल में तब्दील होने से रोकने में सफल होते हैं, उनकी ग़ज़लें कलात्मक संयम व सोद्देश्य कलात्मकता की अनुपम उदाहरण हैं, यदि उनके इस कौशल की छानबीन की जाय तो यह बात साफ साफ सामने आती है कि डीएम मिश्र की भाषा की जड़ें बड़ी गहरी हैं, उसमे हमारी हज़ार वर्षों की संस्कृति की आवाज़े हैं, मिथकों की जीवंत दुनिया है, गहन इतिहासबोध है, व साथ ही हमारे आज के समय की बोलचाल की भाषा का अद्भुत समन्वय है, डीएम मिश्र की यह समावेशी भाषा जब उनके गहन जीवनबोध व आलोचनात्मक चेतना से उपजे प्रतिरोध को मूर्त रूप देती है तब उसमे हमे हमारे समय की तस्वीर साफ साफ दिखाई पड़ती है व स्पष्ट सुनाई पड़ती है उसकी आवाज़।
डीएम मिश्र दुर्धर्ष जिजीविषा के कवि हैं उनकी ग़ज़लें उनके आत्मसंयोजन व आत्मव्यवस्था की सुसम्बद्ध उज्ज्वल अनुभूतियां हैं–
हवा ख़िलाफ़ है लेकिन दिए जलाता हूँ
हज़ार मुश्किलें हैं फिर भी मुस्कराता हूँ
उनकी ग़ज़लों में यह खुली चुनौती भी है
अब ये ग़ज़लें मिज़ाज़ बदलेंगी
बेईमानों का राज़ खोलेंगी
दूर तक प्यार का स्वर गूंजेगा
ग़ज़लें रस्मों रिवाज़ बदलेंगी
हिंदी ग़ज़ल के संदर्भ में यह बेबाक व साहसिक टिप्पणी–
खूब दरबार कर चुकीं ग़ज़लें
अब यही तख्त-व-ताज बदलेंगी
कुछ अलग अलग मनोभूमि के इन शेरों को पढ़ने से डीएम मिश्र की ग़ज़लों का रकबा समझ मे आता है–
1.
उनके कुत्ते भी दूध पी के सो गए होंगे
मगर बच्चा बगल का दो दिनों से भूखा है।।
पंख कट जाएं भले ज़िंदा पकड़ में आएं हम
तीर ऐसा जानकर मेरी तरफ छोड़ा गया
कहाँ गुहार लगाऊं, कहाँ अर्ज़ी डालूं?
यहां का हुक्मरां कुछ सुनता नही बहरा है
तुम तो कुत्तों की तरह भिड़ गए हो आपस में
उसने तो सिर्फ उछाला विकास का चश्मा।।
जिसे देखिए वो बड़ा आदमी है
मगर आदमियत इधर से है गायब।।
2.
सोचिये मंदिर औ मस्ज़िद घर से कितनी दूर हैं?
जब ख़ुदा को देखना हो अपने भीतर देखिए।।
3.
अगरचे किसी के नहीं हैं वो लेकिन
सुना है कि उनके दिवाने बहुत हैं।।
4.
उधर बाज़ बैठा इधर है शिकारी
कबूतर खलाओं में उड़ते हैं लेकिन।।
5.
यही जनक्रांति परिवर्तन नहीं लाये तो फिर कहना
ये गर सरकार घुटनों पे न आजाये तो फिर कहना।।
6.
ज़िंदगी सबको देती है मौका मगर
सो रहा था मैं जगने में देरी हुई।।
7.
हाथों में सारंगी होठों पर कबिरा की बानी है
चक्कर रोज लगाता एक फकीर हमारी आंखों में।
8.
गम को भी अपने छुपाना सीखिए
लाज़िमी है मुस्कराना सीखिए
है कहावत दिल मिले या न मिले
हाथ तो लेकिन मिलाना सीखिए।।
9.
किसी के पास में चेहरा नहीं है
किसी के पास आईना नही है।
10.
खुशी में किसी को भी साथी बनालो
ग़मो का है रिश्ता हमारा तुम्हारा
डीएम मिश्र की ग़ज़लें हमें खोजती हैं, घेरती हैं, जोड़ती हैं, खड़ा करती हैं, हमे जूझने का हौसला देती हैं और इस उपक्रम में हमे हमारे होने का एहसास कराती हैं, डीएम मिश्र की ग़ज़लों की सबसे बड़ी ताकत उनमे छिपी व्यंजना की शक्ति है जो बड़े सधे अंदाजेबयां में आती है, ग़ज़ल विधा में अंदाजेबयां या कथनभंगिमा याकि विट का बहुत महत्व है, उर्दू ग़ज़ल लगभग एक सदी तक स्थिर विषय वस्तु के होते हुए भी अपने ग़ज़लकारों के अंदाजेबयां की ताजगी के चलते लोकप्रिय बनी रही, कलावाद को हम जितना भी खारिज़ कर लें लेकिन कविता प्रथमतः व अंततः शब्दों का खास संयोजन है। यह,”खास संयोजन” का पद कला की ओर सीधा संकेत देता है, हालांकि डीएम मिश्र की ग़ज़लों में कला को लेकर विशेष आग्रह नही दिखता, उनकी ग़ज़लें अनलंकृत काव्य साधना की विरल उदाहरण हैं ।उनके लिए उद्देश्य महत्वपूर्ण है, साधन से अधिक साध्य पर बल है लेकिन फिर भी उनकी ग़ज़लों में अंदाजेबयां की अद्भुत उपस्थिति है।वैसे भी यह समय बौद्धिक जटिलताओं से परहेज़ कर कुछ सामान्य सरलीकरणों से अपने समय को समझने का है, बिना बिम्बों के अतिरेक व शब्द बहुलताओं के अपने अनुभव के ऐन्द्रिक ग्रहण को ग़ज़लों में चरितार्थ करना बहुत कठिन कार्य है लेकिन सहज भाषिक विन्यास में विराट भाव बोध की इन ग़ज़लों में डीएम मिश्र का यह हुनर साफ साफ दिखता है।
डीएम मिश्र ने वास्तविक दुनिया का लाक्षणिक इबारत की तरह इस्तेमाल किया है यानि कि वे वास्तविक दुनिया के व्योरों का उनके अपने लिए नहीं बल्कि दूसरे अभिप्रायों और अर्थों को उजागर करने के लिए इस्तेमाल करते हैं, इसके साथ ही प्राकृतिक दुनिया के बहुत तीक्ष्ण और स्पष्ट चित्र उनकी ग़ज़लों में मिलते हैं, डीएम मिश्र की ग़ज़लों में मनुष्य की हालत को प्रमाणित करने वाली शक्तियों का अहसास है, उन्होंने ग़ज़लों में सार्वजनिक दुनिया, राजनैतिक व सामाजिक विचारों का पुनर्वास किया है,इनके शब्दों की शक्ति इन विचारों की शक्ति को ग़ज़लों में जीवंत बनाती है, इनकी ग़ज़लों की दुनिया चरित्रों, प्रतीकों, बिम्बों,के एक बड़े परिवार जैसी है और यह उसके समावेशी होने का प्रमाण है। एक सचेत कवि इस स्थूल संसार के समानान्तर एक आभासी प्रतिसंसार की संरचना करता है, वह अपने उस प्रतिसंसार का विधाता होता है अपने उस संसार के लिए वह आचारसंहिता व नागरिकता के नियम तय करता है इसीलिए कवि को प्रजापति भी कहा कहा गया है , वह अपने प्रतिसंसार व जगत के स्थूल संसार से तुलना करता है व उसे अपने संसार व स्थूल संसार मे जो अंतर मिलता है उसके सन्दर्भ में तमाम संशोधन प्रस्तावित करता है, इसी प्रस्ताव के क्रम में वह सवाल खड़ा करता है, डीएम मिश्र इस लिए भी महत्वपूर्ण हैं कि उनके पास एक बेहतर दुनिया का नख़्शा है और वे निरन्तर अपनी ग़ज़लों में दुनिया को और सुंदर, और सुरक्षित, बनाने के लिए जूझते दिखते हैं। उनके लिए लोक का महत्व शास्त्र से अधिक है, इसी लिए वे साक्ष्य के लिए शास्त्र की जगह लोक को तरजीह देते हैं, उनकी शब्दावली में देशज व लोकप्रयुक्त शब्दों की बहुलता है जिससे उनकी ग़ज़लें एक साथ” क्लास ” व ” मास” से सम्वाद स्थापित करने में समर्थ होती हैं, यह उनकी अलग से रेखांकित करने योग्य विशेषता है। हालांकि विचार के रास्ते कविता नहीं पढ़ी जानी चाहिए बल्कि कविता के रास्ते भी विचार किया जाना चाहिए क्योंकि कविता भी ज्ञान की एक आदिम व विश्वनीय प्रविधि है, लेकिन साथ ही यह भी कि बिना वैचारिक परिपक्वता या प्रतिबद्धता के कविता प्रायः संवेग व आवेश का एक अनियंत्रित ज्वार बनकर रह जाती है, इस द्वैत का सन्तुलित संयोजन डीएम मिश्र ने अपनी ग़ज़लों मे बड़े कौशल के साथ किया है, इन सन्दर्भो में उनकी मौलिकता ध्यातव्य है। डीएम मिश्र अपने गहन परम्परा बोध के चलते अपनी ग़ज़लों में परम्पराओं का अपने समकालीन सन्दर्भों में पुनर्पाठ करते हैं इसप्रकार वे अतीत व वर्तमान के बीच एक पुल बनाते हैं, इन अर्थों में वे केवल वर्तमान के कवि नहीं बल्कि निरन्तर वर्तमान के कवि हैं।
हमारी शुभकामना है कि इन टेढ़े सवालों का जवाब डीएम मिश्र को जरूर मिले जिससे प्रश्नवाची हुक में लटकी मनुष्यता की लहूलुहान सम्वेदना को कुछ सुकून मिल सके, यह दुनिया एक बेहतर दुनिया मे तब्दील हो सके।निश्चित रूप से डीएम मिश्र की अनवरत काव्य साधना का यह पांचवा ग़ज़ल संग्रह हमारे समय मे ग़ज़ल की संभावना को आगे बढाने में सहयोगी होगा, लोकरंजन करेगा व सुधी पाठकों में पर्याप्त समादर प्राप्त करेगा।