कविता- बौद्धिवृक्ष के नीचे
बौद्धिवृक्ष के नीचे —-
मैं तथागत हूँ —-
तथा आगत , तथा गत ।
बोधिसत्व से बुद्ध बनने की अंतर्यात्रातय
होती है असंख्य जन्मों में ।
ऊर्ध्वग ज्योति – शिखा
एक दिन निर्वाण प्राप्त कर लेती है और
भोर का तारा डूबने के साथ ही
कुछ डूब जाता है अपने भीतर ।
अपने भीतर देखना ही तो विपश्यना है !
साक्षी भाव से निर्भाव के बिन्दु से भावों का दर्शन
चित्त को संस्कार शून्य बना देता है ।
मन की संरचना के साक्षात्कार से
अमन की प्राप्ति होती
है औरतृष्णा का क्षय होता है ।
तृष्णा ही दुःखों का कारण है और
यही आर्य सत्य है ।
सत्य को उसके मूल अक्ष पर बेधने के लिए
आर्य अष्टांगिक मार्ग खोजा गया है ।
मुक्ति की कामना से भी मुक्त होना होगा ।
धम्मपद की देशनाएँ श्रमण को
अपने मन को खाली करने का निर्देश देती हैं ।
शून्य ही सविकल्प समाधि है जो
महापरिनिर्वाण की ओर ले जाती है परिव्राजक को ।
शिव की तरह विचारों की गंगा के आवेग को
जटाओं में धारण कर लेने के बाद ,
मन के पर्दे पर पकड़ कर
विचारों को जी लेने के बाद ,
घटनाएँ मन का स्पर्श नहीं करतीं
,मान – अपमान प्रभावित नहीं करते ।
किन्तु मानसिक संताप से पराङ्मुख होने
और बन्धनों को खोलने के बजाय
सम्प्रदाय से ही बँध जाते हैं हम ।
मूर्तिपूजा के विरोधी की ही मूर्ति
पूजने लगते हैं हम ।
“माया महा ठगिनी हम जानी ।
“बुद्ध के आत्म – सुख को
चीरता रहता है यशोधरा का विलाप ।
किन्तु यह आत्म – संघर्ष
परिवार से पलायन नहीं ,
सम्बुद्धों के वृहत्तर परिवार के
सृजन केमहनीय दायित्व – बोध से संस्फूर्त है ।
आत्मोत्थान के माध्यम से ही
समाज का उन्नयन सम्भव है ।
मैं शान्ति की छाया में बैठा हूँ ,
मुझमें अशान्ति मत ढूँढ़ो ।
हो सके तो
धम्मपद में गीता को खोजो ।
मेरी जातक – कथाओं से गुजरो ,
जिनमें अजन्मा होने के बीजसूत्र छिपे हैं ।
-अजित कुमार राय
– नया ज्ञानोदय, आलोचना, वागर्थ, हंस,कथादेश,
कथाक्रम, परिकथा, पाखी, अक्षरा, साहित्य-अमृत आदि
पत्रिकाओं तथा जनसंदेश-टाइम्स, आज, सहारा-समय,
दैनिक-जागरण आदि समाचार-पत्रों में रचनाएँ प्रकाशित
काव्य-कृति : ‘आस्था अभी शेष है’,
‘सर्जना की गंध-लिपि’(सम्पादित)-
9839611435
– विष्णुपुरम कॉलोनी, न्यू कचहरी रोड सरायमीरा,
कन्नौज, उ.प्र.
(209727)