दोहे
हम पीड़ा के वंशधर , सिर पर दुख की धूप
अश्रु, आग, बादल, नदी, सभी हमारे रूप.
जो कुछ कहना था कहा,मुँह पर सीना तान
एक आइना उम्र भर, मुझमें रहा जवान.
रहे लेखनी की प्रभो, हरदम पैनी धार
अँधियारों पर कर सकूँ, मैं जीवन-भर वार.
अभी हमारे पास है, ज़िन्दा एक ज़मीर
अभी हमारी आँख में, बचा हुआ है नीर.
दरबारों की गोद में, आप मनाएं जश्न
हम तो पूछेंगे सदा, भूख प्यास के प्रश्न.
झूठ और पाखंड से, जूझूँगा दिन- रात
मुझमें ज़िन्दा है अभी, कहीं एक सुकरात.
पुरस्कार, सम्मान सब, रख ले अपने पास
रहने दे मुझमें अभी, खुद्दारी की प्यास.
एक समंदर आग का, एक मोम की नाव
पारगमन के वास्ते, लहरों के प्रस्ताव.
मिले न ग्राहक दर्द के, खुशियां बिकी उधार
बस यूं ही चलता रहा, जीवन का व्यापार.
अपरिमेय हर कोंण है, हर रेखा अज्ञेय
कभी न इति सिद्धम् हुई, जीवन कठिन प्रमेय.
दुनिया भर की खोज में, भटक रहा है रोज
वक़्त मिले तो एक दिन, खुद में खुद को खोज.
जय चक्रवर्ती
वरिष्ठ साहित्यकार, रायबरेली
shaandaar