पुस्तक-समीक्षा
पुस्तक का नाम- आओ लौट चलें अब गाँव (कविता-संग्रह)
कवि- वेदप्रकाश प्रजापति
प्रकाशक- हिंदीश्री पब्लिकेशन, सुरियावं, महुआपुर, संत रविदासनगर(उ.प्र.)
प्रकाशन वर्ष-2021
मूल्य-350 रु.
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प्रस्तुत कृति ‘आओ लौट चलें अब गाँव’ श्री वेदप्रकाश प्रजापति की 87 विविधवर्णी हिंदी
कविताओं का संग्रह है। यह इनका दूसरा स्वतंत्र काव्य-संग्रह है। इस संग्रह में प्रो. ओमपाल सिंह और
डॉ. हरेंद्र प्रसाद जैसे विद्वानों के शुभसंदेश हैं तथा वरिष्ठ साहित्यकार श्री भोलानाथ कुशवाहा की
विस्तृत भूमिका है। इससे पूर्व इनका एक काव्य-संग्रह ‘कुछ एहसास’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है।
कविता का संबंध सीधे-सीधे व्यक्ति की संवेदनशीलता से होता है। एक संवेदनशील व्यक्ति ही कविता
लिखता है और एक संवेदनशील व्यक्ति ही कविता को पसंद करता है। माँ शारदा की प्रेरणा से
कविता किसी का भी दामन पकड लेती है चाहे वह व्यक्ति कम पढा हो, अधिक पढा हो, न पढा हो,
कुछ भी पढा हो। श्री वेदप्रकाश प्रजापति जी आई आई टी रुड़की जैसे प्रख्यात संस्थान से पढ़े विद्युत
अभियंता हैं और वर्तमान में एयर इंडिया में महाप्रबंधक के पद पर सेवारत हैं। ये एक वैज्ञानिक की
दृष्टि और एक कवि का ह्रिदय रखते हैं। गाँव की स्नेह-पगी माटी में पले प्रजापति जी आज भी गाँव
की उन प्रेमिल यादों को सीने से लगाए हुए हैं। इस पुस्तक के विषय में भोलानाथ कुशवाहा जी
लिखते हैं-‘कवि वेदप्रकाश प्रजापति की रचनाओं में जीवन के कई प्रसंग और उनका परिवेश मील के
पत्थर की तरह उभरता चलता है। वह बहुत कुछ कहना चाहते हैं। कुछ तलाशते लगते हैं। कुछ पीछे
छूटा बहुत प्यारा-सा अतीत। उनका अपना पहले वाला गाँव, गाँव के पहले वाले लोग, गाँव की पूरी
प्रकृति, आत्मीय रिश्ते-नाते’।
जैसा कि इस पुस्तक के शीर्षक ‘आओ लौट चलें अब गाँव’ से विदित है इसमें गाँव की अद्भुत
मनोहारी छवियाँ यत्र-तत्र बिखरी पड़ी हैं। कई कविताओं में प्रकृति की अनुपम छटाएं अपनी सम्पूर्ण
सज-धज के साथ उपस्थित हैं जैसा कि ‘ऊषा-काल’, ‘कुहासा’, ‘जंगल’, ‘वसंत’, ‘सुबह’, ‘सरिता’,
‘हरियाली और रास्ता’, ‘मिट्टी’, ‘प्रकृति’, ‘फूल’, ‘नदी’, ‘गुलमोहर’, ‘गौरैया और घोंसला’, ‘प्राकृतिक
छवि’, ‘बरसात’, ‘गाँव’, ‘चाँद’, ‘बारिश का वो दिन’, आदि कविताओं में नजर आता है। ऐसा नहीं कि
इस पुस्तक में केवल प्रकृति का ही चित्रण है। इसमें जीवन के और रंग भी भरपूर हैं। कई कविताओं
में पर्यावरण की चिंता व्यक्त हुई है जैसे ‘जहरीली हवा’, ‘प्यासी चिड़िया’, ‘सूख गई जो अब
हरियाली’, ‘प्यासा पंछी’ आदि। हमारा जीवन रिश्तों से बँधा है। रिश्तों के महत्व को रेखांकित करती
कई कविताएँ इस पुस्तक में हैं यथा- ‘संयुक्त परिवार’, ‘रिश्ते-नाते’, ‘पापा’, ‘बचपन’, ‘मां’, ‘बेटी’,
‘पिता-पुत्र’, ‘माँ ममता’ ,आदि। अनेक कविताओं में अध्यात्म व जीवन-दर्शन अपनी गरिमा के साथ
उपस्थित हैं जैसे ‘मिट्टी’ ‘मैं कौन हूँ’, अनजान रास्ते, ‘चित्रकार’, ‘आँसू’, ‘डोली’, ‘चिराग’ आदि
कविताएं इसका उदाहरण हैं। भारतीय परंपरा का एक महत्वपूर्ण भाग है इसके तीज-त्योहार। ‘नया
साल’, ‘होली’, ‘होली आई रे’, ‘होली में हुडदंग मचाना’, ‘दीपावली’, ‘गणतंत्र दिवस’ आदि कविताएं
भारतीय त्योहारों पर आधारित हैं। ‘कोरोना हाहाकार’, ‘कोरोना लॉकडाउन’, ‘कोरोना महाजाल’ कविताएं
इस सदी की भयंकर महामारी कोरोना के नाम हैं।
‘आजादी के वीर शहीद’, ‘तिरंगा’, ‘स्वतंत्र भारत’,‘शहीद चंद्रशेखर आजाद’, ‘है भारत एक अपूर्व देश
आदि कविताएं देशप्रेम की कविताएं हैं। श्रृंगार-प्रेम के संयोग और वियोग दोनों पक्षों पर भी बेहतरीन
कविताएं इस पुस्तक में हैं यथा-‘तुम बिन’, ‘इंतजार’, ‘आँखों के रास्ते’, ‘जब उसे मेरी याद आ रही
होगी’, ‘यकीन मानो कि इस धरा पर’, ‘दो दिल’, ‘जुल्फें’, ‘पावस आदि।
एक सजग नागरिक की तरह वेदप्रकाश जी अपने समय की भयानक समस्या पर्यावरणीय प्रदूषण से
चिंतित हैं और कई कविताओं में यह चिंता दिखाई देती है। ‘कुहासा’ कविता की ये पंक्तियाँ दृष्टव्य
हैं-
हो रहा प्रकृति का शोषण
फैल रहा है जटिल प्रदूषण
विष मिल गया हवा में ऐसे
साँस लेना मुश्किल हर क्षण।
इनका प्रकृति चित्रण बहुत ही सजीव बन पड़ा है। अनेक कविताओं में जंगल की हरियाली, पक्षियों का
कलरव, माटी की महक पाठक महसूस करने लगता है। ‘वसंत’ कविता की ये पंक्तियां देखें-
पेड़ों की डाली ओढ़े हो
कोमल पत्तों का लिबास
कूकती कोयल करवाती
वसंत आने का आभास।
कहीं-कहीं अपने कवि एक दार्शनिक की मुद्रा में भी नजर आते हैं। मानवजीवन क्षणभंगुर है यह बात
हर संत, दार्शनिक कह गया है। प्रजापति जी ने भी यह बात अपने अंदाज में कही है-
मिट्टी से बना है जीवन
मिट्टी से पूरा संसार
मिट्टी का ही बना ये तन
मिट्टी है जीवन का सार।
आज परिवार एकाकी हो गए हैं। सब अपने अपने छोटे-से दायरे में बंध गए हैं। संयुक्त परिवार कहीं
खो गए हैं। इसके साथ हमने जाने क्या-क्या खो दिया है। कवि इस दर्द को महसूस करता है और
‘संयुक्त परिवार’ नामक कविता में कुछ यों कहता है-
सब मिलकर जहाँ साथ-साथ
रखते एक दूजे का ध्यान
घर में किसी को कमी हो कोई
करते झट उसका निदान।
कुछ कविताओं में कवि ने कविता के प्रति अपनी सोच को भी दिखाया है। ‘कविता’ शीर्षक वाली
कविता की कुछ पंक्तियाँ इस संबंध में ध्यातव्य हैं-
हो सुसज्जित अनेक रसों से
अनन्य भाव बरसाती कविता
भर कर उमंग, कर ह्रिदय स्पर्श
दिल में जगह बनाती कविता
जब आप साधन संहन्न होते हैं तभी हर ऋतु सुहावनी लगती है। बरसात सबको आनन्द देती है
लेकिन यदि सर पर छत ठीक-ठाक न हो तो रात काटना मुश्किल हो जाता है।
बारिश का वो दिन कहता
छप्पर की टपकती दास्तां
लगाएं लाकर कहीं बाल्टी
कहीं लाकर रख दी थाली
रुड़की विश्वविद्यालय में अपने चार वर्ष के अध्ययन के काल को इन्होंने अपनी एक कविता
‘इंजीनयरिंग’(एक आत्मकथ्य़) में बड़े ही रोचक अंदाज़ में बयान किया है-
चार साल का कार्यक्रम था
भरजोर अपना परिश्रम था
करते रहे अनवरत हम उद्यम
श्रमं विना न किमपि साध्यम्।
नारी अस्मिता को लेकर भी आपकी सोच बड़ी स्पष्ट है। नारी परिवार की धुरी तो है ही लेकिन वह
आज समाज के विकास में भी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। ‘अरुणोदय की छवि’
कविता की ये पंक्तियाँ देखें-
अबला नहीं रही अब नारी
देखे कमाल अब दुनिया सारी
यान उड़ाए,सीमा पर जाए
सब कुछ करने लगी अब नारी
प्रेम और श्रृंगार जीवन में आनंद के रंग भरते हैं। कोई कवि प्रेमी हुए बिना कवि नहीं हो सकता। कई
कविताओं में श्रंृगार के सजीव चित्र बड़ी कलात्मकता के साथ हमारे कवि ने उकेरे हैं। ‘आँखों के
रास्ते’ कविता की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-
झील-सी आँखें, काली जुल्फें घनेर थी
जिंदगी में घुसकर हलचल मचा गया कोई।
आज हम अनेक आधुनिक सुविधाओं और साधनों से संपन्न हैं। इन साधनों ने हमारा जीवन बहुत
आसान भी कर दिया है लेकिन इन्हें पाने में हमने बहुत कुछ खो भी दिया है। इस खोने का दर्द
हमारे कवि को है और कई कविताओं में यह बयान हुआ है। मोबाइल आदि से आज संपर्क जितना
तीव्र और सरल हो गया है उसकी कुछ वर्ष पूर्व कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था। तमाम सोशल
मीडिया के चलते चिट्ठियों की कसक पुराने लोगों के मन में उठती रहती है। ‘खत’ नामक कविता में
इन्होंने जो विशुद्ध नॉस्टेल्जिया उत्पन्न किया है वह देखते ही बनता है-
इसमें तो वो मजा कहाँ है, खत-सी वो फितरत कहाँ है
कभी हँसाए, कभी रुलाए, उसके जैसा नशा कहाँ है।
वेदप्रकाश जी अपनी जड़ों, अपनी परंपराओं से जुड़े कवि हैं। रिश्ते-नातों, त्योहारों की खुशबू इनकी
कविताओं में यत्र-तत्र-सर्वत्र बिखरी पड़ी है-
जब हो प्रेम का आभास
रिश्तों में आए मिठास
ना हो नफरत का वास
रिश्ते बन जाते हैं खास।
देशप्रेम की भी कई कविताएं संग्रह में हैं। ‘शहीद चंद्रशेखर आजाद’ कविता की पंक्तियाँ देखें।
आओ उसको याद करें जिसने आजादी की आग लगाई थी
होएँ नतमस्तक समश्क्ष उसके, जो अंग्रेजों की नींद उडाई थी।
विषय-वैविध्य बहुत है इनकी कविताओं में। प्रजापति जी वास्तव में जीवन के कवि हैं। जीवन के सभी
रंग अपनी कविताओं में भरने की इन्होंने भरपूर कोशिश की है। इनकी कविताओं में जीवन की
आपाधापी में बहुत कुछ खो जाने की टीस अवश्य है लेकिन आशा के स्वर सर्वत्र सुनाई पड़ते हैं।
इनकी रचनाओं की भाषा एकदम सरल भाषा है। आवश्यकतानुसार कवि ने जहाँ संस्कृत के तद्भव
शब्दों यथा- जीवन, निवारण, रश्मि, अद्भुत, आदित्य, ऊर्जा, उत्साह, रवि, अनुपम, परिधान,
जलाशय, शोषण, प्रदूषण, विष, क्षण, निष्कंटक, पृथक, सघन, वृक्ष, प्रकृति, स्पर्श, आगमन, प्रचंड,
आभास, क्षितिज, व्योम, शनै-शनै, अंतर्मन, कलरव, स्वार्थ, निर्मल, अविरल, कलुष, सरिता, सुगम,
मेघ, आकाश, संपूर्ण, उपवन, निर्मित, विधान, विचित्र, वातावरण, मधुकर, मकरंद, पटल, सुगंध, मूल,
स्वर्ग, अवसर, अभिमान, तुंगशिखर, धवल, नीर, अमृत, विकार, तोय, पवित्र, गरिमा, विषधर, तरुवर,
ऊष्ण, आकर्षक, अवनि, निवास, दुर्लभ, प्रफुल्लित, समुचित, चपल, दिव्य, पथिक, हर्षित, परिपूर्ण,
वारिद, वृष्टि, स्वतंत्र, संयुक्त, आमोद-प्रमोद, संताप, उद्वेलित, व्याकरण, सुरभित, आत्मविभोर,
अनन्य, क्षणभंगुर, आतुर, परित्याग, नीरद, विद्या,तिमिर, अनवरत, अध्ययन, संचय, अवतरित, क्षीर,
कवच, वैभव, अमिय, अभिनंदन आदि का प्रयोग किया है वहीं उर्दू के माध्यम से आए अरबी-फारसी
शब्दों यथा-ज़िंदगी, वतन, खानदान, आलीशान, शोरगुल, आशियाना, मौसम, लिबास, सुबह, नजर,
दास्तां, दुश्वार, खुशबू, मंजूर, तबाही, बरबाद, लाश, शान, मुश्किलें, दुश्मन, इंसान, शिकायत, गंदगी,
इमारत, लुत्फ, बारिश, किस्मत, गरीब, तूफान, नफरत, फ़िज़ा, रोशनी, अफसोस. इंतजार, अखबार,
मुसीबत, अश्क, दिल, जगह,मंजिल, ख्वाब, महफिल, होशोहवास, मदहोश, शराब, शान-शोकत,जह्न,
रहम, जिल्द, उम्मीद, दुनिया, एहसास,वक्त, फतह, दीदार, लब, खयाल, फितूर, खत, फितरत, जुल्फें,
कयामत, इनायत, नजाकत आदि का भी सफल प्रयोग किया है। जहाँ देशज शब्दों यथा- पखेरू, झुंड,
पंछी, माटी, खलिहान, गमकना, पुअरा, डगर, गऊँवा, खटिया, तलैया, बिंदास आदि का प्रयोग किया
गया है वहीं अंग्रेजी के शब्दों जैसे कि- मास्क, कोरोना, लॉकडाउन, ब्राण्ड, गटर, मीटर, डॉक्टर,
इंजीनियर, बायोलोजी, लेक्चर, डिक्शनरी, रेल, कॉपी-पेस्ट, शेयरिंग, फ़रवारडिंग, डिजिटल, फेसबुक,
वहाट्सअप, लाइक, कमेंट्स आदि का भी सटीक प्रयोग इन्होंने किया है। वेदप्रकाश जी अपनी भारतीय
परंपरा से जुडे व्यक्ति हैं, कमंडल, ऋषि, मुनि, जडी-बूटी, शंखनाद, योगी, अतिथि देवो भव: आदि
शब्दों का प्रयोग इस बात का सबूत है।
संप्रेषणीयता को बढ़ाने के लिए कहीं-कहीं मुहावरों यथा- लेकर बीडा निकलना, मन में ठानना, आग
उगलना, गटक जाना, हाथ न आना, दिल में उतरना, हुडदंग मचाना आदि का प्रयोग भी सुंदर बन
पडा है।
इस काव्य-संग्रह की रचनाएं अलग-अलग प्रारूपों में हैं। अधिकांश गीत या नज़्म के आकार में हैं, हाँ
कोई-कोई रचना ग़ज़ल के फॉर्मेट में भी हैं। कहीं-कहीं भाषागत या शिल्पगत शैथिल्य नजर आता है
लेकिन रचनाएं प्रभावशाली हैं।
सबसे बड़ी बात जो इन कविताओं की है वह यह है कि ये अनूभूत यथार्थ की नींव पर खड़ी हैं। इनमें
कृत्रिमता नहीं हैं। इन कविताओं से गुज़रते हुए पाठक स्वयं को इनमें महसूस करने लगता है। एक
अच्छी कविता की एक पहचान यह भी है कि श्रोता या पाठक इनमें अपने अनुभवों, अपने जीवन को
पाकर इनसे तुरंत जुड जाता है। ऐसी कविताएं पाठक के दिल में उतर जाती हैं।
वेदप्रकाशजी को इस काव्य-संग्रह के लिए बहुत-बहुत बधाई। ये काव्य-जगत को और ऐसे की संग्रहों
से समृद्ध करे, ऐसी शुभकामना के साथ
डॉ.ऋषिपाल धीमान ’ऋषि‘
66, श्रीनाथ बंग्लोज, चाँदखेड़ा
अहमदाबाद-382424
Rishi507dhiman@gmail.com