महरी उपन्यास खुद ब खुद बोलता है – रामनाथ शिवेंद्र

महरी विमोचन

महरी के कृतिकार-गिरिजा प्रसाद चौधरी ‘चंद्र’

महरी और मेंधर की गोद में का विमोचन १६-०१-२०२४ को हुआ था

गिरिजा प्रसाद चौधरी ‘चंद्र’ का महरी लघु उपन्यास लम्बे अंतराल के बाद अधिदर्शक भाई की नैतिक उत्प्रेरणा से प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास को प्रकाश में लाने के लिए उनकी पत्नी निर्मला देवी तथा उनके पुत्रों प्रेमेंद्र कुमार ऋषि कुमार एवं दुष्यंत कुमार को निश्चित रूप से धन्यवाद दिया जाना चाहिए।
दर असल साहित्य के प्रति उनके परिवार का प्रेम देखकर तथा उनके आंखों में एक महत्वपूर्ण कथाकार गिरिजा प्रसाद चौधरी ‘चंद्र’ की साहित्यिक भूमिका का दृश्यमय अवलोकन बहुत ही महत्वपूर्ण है माना जाना चाहिए कि जैसे कथाएं नहीं मरती वैसे कथाकार भी नहीं मरता वह अगर घर में जिंदा है तो बाहर भी जिंदा है। अनुमान लगाना सहज हो जाता है कि श्री चौधरी महरी जैसे जरूरी उपन्यास को कैसे सृजित कर पाए। जिस घर में इतना बढ़िया माहौल हो सब एक दूसरे से प्रेम करते हो फिर तो बाहर से जो निकलने वाली चीखें हैं आवाज हैं ये सब तो कथा का विस्तार लेगी ही। आइए बढ़ते हैं उपन्यास महारी की तरफ और देखते हैं कि यह उपन्यास पढ़ना क्यों जरूरी है?

mahari
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यह उपन्यास उन लोगों के लिए कत्तई आवश्यक नहीं है जिन्हें वर्ग भेद का,वर्ग संघर्ष का तथा उससे उपजने वाले परिणामों का कत्तई आभास नहीं है लेकिन जिन्हें आभास है उनके लिए तो बहुत ही आवश्यक है। प्रस्तुत उपन्यास में दो प्रमुख पात्र है एक है कमला और दूसरा है कमलेश दोनों पात्र भिन्न-भिन्न सामाजिक परिस्थितियों की उपज है। कमला दलित है तो कमलेश स्वर्ण है जो दलित से ऊपर है । दोनों का कथाओं का मिलान करते हैं एक ही सामाजिक संचेतना पर गिरिजा प्रसाद चौधरी जी, उनकी यह कलाअद्भुत है कि दोनों मिलते कैसे हैं। सामाजिक परिस्थितियों पहले से ही इतने विद्रूप और भेद मूलक हैं की दोनों का मिलना बहुत ही कठिन है। फिर भी उपन्यासकार दोनों को मिलवाता है दोनों के वर्ग स्थितियों के अनुरूप। वर्ग स्थित है कि कमला महरी है और कमलेश उसका नियोक्ता है। आप अनुमान लगा सकते हैं कि वर्ग स्थितियों की भिन्नता के बाद भी दोनों का मिलान किस तरीके से अद्भुत होगा।

आप जानते हैं कि उपन्यास में कहानी तो होती ही है कुछ पात्र होते हैं कुछ घटनाएं होती हैं और उन घटनाओं का विवरण होता है उसके आधार पर कहानी का सृजन होता है लेकिन देखना यह होता है कि उपन्यास क्या संदेश देना चाहता है। उपन्यास का संदेश साफ है कि दहेज प्रथा के कारण कमलेश की जिंदगी जो बे पटरी हो जाती है, कमला चाहती है कि कमलेश की जिंदगी पटरी पर आ जाए पर पूंजीवादी अर्थ प्रबंधन इन दोनों को पटरी पर लाने नहीं देते विसंगतियां अलग तरीके से वहां मुहबाये खड़ी हो जाती है ।


कथा का अनिवार्य तथ्य है दहेज तथा दहेज प्रथा कहानी के केंद्र में दहेज प्रथा के जो विभत्स है हालांकि उसके रूप उपन्यास में नहीं आ पाते पर उपन्यास यही से शुरू होता है और उपन्यास का आकार लेता है। कमलेश अपने संभावित पत्नी के मृत्यु नहीं भूल पाता क्योंकि वह दहेज के कारण ही आत्महत्या कर लेती है उसके पिता दहेज का प्रबंध नहीं कर पाते जिससे कि उसकी शादी कमलेश से नहीं हो पाती यह इतना गहरा आघात पहुंचाता है की पदमा नाम की एक युवती आत्महत्या कर लेती है। दूसरी तरफ उपन्यास का नायक इस दहेज प्रथा के कारण मानसिक रूप से चोटिल एवं व्यथित हो जाता है वह निर्णय ले लेता है कि विवाह करेगा ही नहीं, साथ ही साथ वह गरीब लड़कियों की शादी के लिए भी आयोजन करवाना शुरू कर देता है जिसके कारण कोई लड़की आत्महतया न करें, तो यह एक प्रति क्रिया नहीं है बल्कि एक समाधान है जिससे कि कमलेश अपने स्तर से निकलता है तथा की जी जान से इस कार्य में जुट जाता है।
उपन्यास का मुख्य स्वर तथा संदेश दहेज प्रथा का उन्मूलन एवं समापन है जो कि पूंजीवादी प्रबंधन का एक सह उपक्रम है। गिरिजा प्रसाद चौधरी जी अप्रत्यक्ष रूप से यह बताना चाहते हैं कि आर्थिक भिन्नताओं ने जो यह वर्ग भेद पैदा किए हैं कई तरह के रोग लेकर आते हैं दहेज जैसा रोग लेकर आते हैं शोषण लेकर आते हैं मानवीय अत्याचार लेकर आते हैं। हम लाख अपनी सभ्यता की तारीफ करते रहे दरअसल हमारी सभ्यता आर्थिक वर्ग भेद के कारण छिन्न भिन्न होती चलती है और हम मानवीय समीपता के पवित्र लक्ष्य को नहीं हासिल कर पाते हैं।
आप जानते हैं कि उपन्यास में कहानी तो होती ही है कुछ पात्र होते हैं कुछ घटनाएं होती हैं और उन घटनाओं का विवरण होता है उसके आधार पर कहानी का सृजन होता है लेकिन देखना यह होता है कि उपन्यास क्या संदेश देना चाहता है। उपन्यास का संदेश साफ है कि दहेज प्रथा के कारण कमलेश की जिंदगी जो बे पटरी हो जाती है, कमला चाहती है कि कमलेश की जिंदगी पटरी पर आ जाए पर पूंजीवादी अर्थ प्रबंधन इन दोनों को पटरी पर लाने नहीं देते विसंगतियां अलग तरीके से वहां मुहबाये खड़ी हो जाती है । संजोग का भी खेल होता है यह जो संजोग होता है यह पूंजीवादी संरचना में कुछ अलग तरह का खेल करता है जैसा कि बहुत प्रयासों के बाद कमलेश की जिस लड़की से शादी होती है वह चोटिल हो जाती है घायल हो जाती है यह दृश्यमय बोध पैदा करता है, संवेदना पैदा करता है जो कि उपन्यास को और प्रभावी बनता है, पठनीयता को बढ़ाता है तथा उपन्यासकार जो कहना चाहता है उसे कह डालता है।
उपन्यासकार अपने छोटे से उपन्यास में किराए की समझ का उपयोग नहीं करता न हीं किराए की आंख का । वह अपनी आंख से आर्थिक विषमताओं से उपजे हुए वर्ग भेद के छलो, प्रपंचों को देखता है फिर उनमें से सबसे खतरनाक विषय दहेज को चुनता है यह उपन्यास के विषय चयन की बहुत बड़ी सफलता है। मैं उपन्यासकार के इस कौशल को सलाम करता हूं तथा संस्तुति करता हूं कि यह एक जरूरी उपन्यास है इसे निश्चित ही पढ़ा जाना चाहिए।
रामनाथ शिवेन्द्र
१८ जनवरी २०२४

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