डॉ डी. एम. मिश्र एक चर्चित ग़ज़लकार हैं जिनकी रचनाएं देश विदेश के पाठकों द्वारा बड़े चाव से पढ़ी जाती हैं। इनकी 500 से अधिक रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। कई ग़ज़ल की पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप आकाशवाणी, दूरदर्शन, आजतक, ईटीवी, न्यूज़ 18 इंडिया आदि टी वी चैनलों पर अनेक कार्यक्रमों में शामिल हो चुके हैं। चुनावी माहौल से जुड़ी डॉ डी. एम. मिश्र जी की 5 बेहतरीन ग़ज़लें आपके लिए प्रस्तुत हैं –
ग़ज़ल -1
बड़े -बड़े गामा उतरे हैं दंगल में
फंसा हमारा गांव चुनावी दलदल में।
बड़े फख्र से कहते थे हम गांव के है
मगर फंसे हैं आज कंटीले जंगल में।
इसी इलेक्शन ने दो भाई बांट दिए
कभी जो संग में सोते थे इक कंबल में।
नहीं रहा अब गांव सुकूं देने वाला
बड़ी कठिन ज़िंदगी हुई कोलाहल में।
तब तलाशते पशु मेले में मुर्रा भैंस
करें सर्च अब ताज़ा मक्खन गूगल में।
जिसे बनाया था मिलजुल कर वर्षों में
वही हमारा जला आशियां दो पल में।
ग़ज़ल -2
हम भारत के भाग्य -विधाता मतदाता चिरकुट आबाद
लोकतंत्र की ऐसी -तैसी नेता जी का ज़िंदाबाद।
वो भी अपना ही भाई है मजे करै करने दे यार
तू जिस लायक़ तू वह ही कर थाम कटोरा कर फ़रियाद।
बड़े – बड़े ऊँचे महलों से पूछ रहा है मड़ईलाल
मेरा सब कुछ पराधीन है , किसका भारत है आज़ाद।
हर दल का अपना निशान है , मगर निशाना सब का एक
पहले भरो तिजोरी अपनी मुल्क -राष्ट्र फिर उसके बाद।
कफ़नचोर खा गये दलाली वीर शहीदों का ताबूत
फटहा बूट सिपाही पटकैं रक्षामंत्री ज़िंदाबाद।
सच्चाई का पहन मुखौटा ज्ञान बताने निकला झूठ
मेरी जेब कतरने वाला सिखा रहा मुझको मरजाद।
उससे क्या उम्मीद करोगे उसको बस कुर्र्सी से प्यार
जनता जाये भाड़ में वो बस अपना मतलब रखता याद।
दारू बँटने लगी मुफ़्त में लगता है आ गया चुनाव
जा जग्गू जा तू भी ले आ कहाँ मिलेगी इसके बाद।
नेताओं ने वोट के लिए बाँट दिया है पूरा मुल्क
फिर भी जिंदाबाद एकता बेमिसाल कायम सौहार्द।
ग़ज़ल -3
करें विश्वास कैसे सब तेरे वादे चुनावी हैं
हक़ीक़त है यही सारे प्रलोभन इश्तहारी हैं।
हवा के साथ उड़ने का ज़रा -सा मिल गया मौक़ा
तो तिनके ये समझ बैठे वही तूफ़ान आँधी हैं।
कहाँ है वो हसीं दुनिया ग़ज़ल जिस पर बनाते हो
बहुत अच्छा कहा बेशक , मगर अश्आर बासी हैं।
सियासत की वो मंडी है वहाँ भूले से मत जाना
वही चेहरे वहाँ चलते हैं जो कुख्यात दाग़ी हैं।
न तुम कहने से बाज़ आते न हम सुनने से ऐ भाई
पता दोनों को है लेकिन सभी बातें किताबी हैं।
जवाँ बच्चे बडे़ खुश हैं मिला लैपटाप है जबसे
किताबें छोड़कर पढ़ने लगे सब पोर्नग्राफ़ी हैं।
हमें तो रोज़ अपना पन दिखाकर लूटता है वो
मगर हम क्या करें हम भी तो लुट जाने के आदी हैं।
ग़ज़ल -4
वोटरों के हाथ में मतदान करना रह गया
दल वही , झंडे वही काँधा बदलना रह गया।
फिर वही बेशर्म चेहरे हैं हमारे सामने
फिर बबूलों के बनों से फूल चुनना रह गया।
चक्र यह रूकने न पाये , चक्र यह चलता रहे
बस , इसी से एक लोकाचार करना रह गया।
इक तरफ़ माँ -बाप बूढ़े , इक तरफ़ बच्चे अबोध
खुरदरा दोनों तरफ फुटपाथ अपना रह गया।
इस फटे जूते में मोची कील मारे अब कहाँ
चल रहा ये इसलिए तल्ला उखड़ना रह गया।
ग़ज़ल -5
मगर हुआ इस बार भी वही हर कोशिश बेकार गई
दाग़ी नेता जीत गये फिर भेाली जनता हार गई।
फिर चुनाव की मंडी में मतदाताओं का दाम लगा
फिर बिरादरीवाद चला एकता देश की हार गई।
कहाँ कमीशन और घूस की जाँच कराने बैठ गये
बड़े घोटालों की ही संख्या अरब खरब के पार गई।
कल टीवी पर देखा मैने कल छब्बीस जनवरी थी
लोकतंत्र था शूट -बूट में बुढ़िया पाला मार गई।
उस मजूर की नज़र से लेकिन कभी देखिये बारिश को
झड़ी लगी है आप के लिए उसकी मगर पगार गई ।
जनता ने तो चाहा था लेकिन परिवर्तन कहाँ हुआ
चेहरे केवल बदल गये , पर कहाँ भ्रष्ट सरकार गई।