गीतांजलि श्री से एक मुलाकात | उषा राय | हिन्दी श्री | hindi shree

गीतांजलि श्री_उषा राय

मेरी हिन्दी मेरा धन है- गीतांजलि श्री

अपने नए उपन्यास ‘रेत समाधि’की चर्चा के लिए लखनऊ आईं गीतांजलि श्री से मेरी मुलाकात हुई। निःसंन्देह गीतांजलि जी एक असाधारण लेखिका हैं जिसे जीवन के खाँचे और सरलीकरण परेशान करते हैं। वे मानती हैं कि जिन्दगी में कुछ भी निर्धारित नहीं है ,वह इधर से उधर होता रहता है क्योंकि वहाँ जीवन है और जीवन जितना दिखाई देता है उससे कहीं ज्यादा अपरिलक्षित रह जाता है। जीवन की खोज की यह अनुभूति नौ साल के गहन डूबन के बाद आई। इस उपन्यास में यह अनुभूति शिल्प, शैली, मुल्क, उम्र और यहाँ तक कि भाषा की दीवारें भी सीमा लाँघ जाती है। यही कारण है कि परम्परागत बनावट टूटी है और यह तोड़ने की चुनौती ही उनकी भाषा को सामथ्र्यवान बनाती है तथा कथ्य को सर्वथा नवीन। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के कुछ अंश-

उषा – अपने नए उपन्यास ‘रेत समाधि’ के सिलसिले में आप लखनऊ आईं, बहुत-बहुत स्वागत और मुबारकबाद। किताब के बारे में क्या कहना है आपका ?


गीतांजलि श्री – शुक्रिया ! देखिए ये जो ‘रेत समाधि’ है, यह कोई फार्मूला लेखन नहीं है और न ही कोई मुहिम है। यह एक जिजिविषा है, जीवन है। अब एक स्त्री है जिसे कोई पुकारता है तो वह दीवार की ओर सरकती है और उनकी ओर से पीठ कर लेती है तो वह उन लोगों से मुँह मोड़ रही है जो उसे उसी रुप में देखना चाह रहे हैं ,वह जीवन से मुँह नहीं मोड़ रही है। कहने का मतलब यह है कि चीजें खतम नहीं होती हैं। ऐसा लग रहा है कि उम्र हो गई अब यह स्त्री खतम हो गई है तो यह गलत है हाँ वह समाधि यानि अपने को खतम करते की दिशा में जरुर है लेकिन वह वास्तविक नहीं वह रेत समाधि है। जरा सा हटाने पर ,हल्की सी ठोकर लगते ही, थोड़ा आॅक्सीजन देते ही वह समाधि से बाहर निकल आती है और देखते ही देखते उसका वजूद खिलने लगता है।

उषा -‘रेत समाधि’ में काफी सरहदें तोड़ी हैं आपने ?

गीतांजलि श्री-  जीवन वही नहीं है जो दिखाई देता है। इसी तरह भूमिकाएँ भी वही नहीं हैं जो तयशुदा हैं। तो फिर सरहदें कहाँ रहीं। घर की औरत-बाहर की औरत ,जवानी, बुढापा, रोजी, माँ ,भाषा ,देश उधर भी है और इधर भी है। सरहदें हैं ही नहीं, यदि हैं भी तो मैं नहीं मानती। अपनी भूमिका में कैद स्त्री और उससे बाहर की स्त्री को भी मैं देखना चाहती हूँ। बच्ची-युवा-बूढ़ी और फिर मौत, जिन्दगी इसी सीध में नहीं चलती है। एक जीवन में न जाने कितने जीवन होते हैं, कितनी कहानियाँ, कितने नाटक होते हैं। हम इतिहास, भूगोल के बच्चे हैं। समय हमें गढ़ता है। रेत समाधि की दादी उठती है बिल्कुल नई ,नया बचपन, नई जवानी के साथ सामाजिक वर्जनाओं और निषेधों से मुक्त।

उषा -सचमुच  साधारण स्त्री में छिपी एक असाधारण स्त्री की महागाथा है रेत समाधि। इसके पहले आप ‘माई’ लिख चुकी हैं, ‘मार्च माँ और साकुरा कहानी लिखी, दोनों ही देश-विदेश में सराही गईं। माँ के लिए कुछ खास कहना चाहती हैं आप ?

गीतांजलि श्री – हाँ ! मैं ये कहना चाहती हूँ कि माँ के रुप में किसी भी स्त्री का उम्र से कोई लेना देना नहीं होता है, वह दाल- चावल, पकौड़े बनाते-बनाते ,बच्चों की देखभाल करते ,लोगों का स्वागत सत्कार करते-करते थक चुकी है। अब वह अपनी इच्छाएँ आकांक्षाएँ जो उससे छूट गईं थीं, राजनीति की वजह से या किसी और वजह से वह उन्हें जीना चाहती है। वह फिर से लौटती है तो उसके लिए सरहदें मायने नहीं रखती हैं। वह अपनी अन्तरात्मा की आवाज पर अपने वेग से आगे निकल जाती है।
‘माई’ उपन्यास बहुत पढ़ा गया। सर्बिया, फ्राँस में अंश पाठ के लिए बुलाया गया। बर्लिन के एक ट्रांसलेटर ने बताया कि मुझे समझ में नहीं आता था कि मेरी माँ चुप क्यों रहती है वह दूसरी औरतों की तरह बोलती क्यों नहीं लेकिन जब मैंने ‘माई’ उपन्यास पढ़ा तो माँ को समझने लगा अब मैं उन्हें आदर देने लगा हूँ, उनकी चुप्पी का अर्थ समझने लगा हूँ।

उषा -आपका उपन्यास है-‘हमारा शहर उस बरस’ में साम्प्रदायिकता के प्रवाह को मोड़ने की कोशिश दिखाई देती है। लोगों का तो कहना है कि आपने कुछ भविष्यवाणी ही कर दी थी।

गीतांजलि श्री – देखिए ,कोई भी संवेदनशील व्यक्ति गलत रुझान देखकर चुप नहीं रह सकता है। ऐसा नहीं कि मैंने कोई बड़ी बात कह दी या भविष्यवाणी जैसा कुछ ,पर हाँ किस तरह की प्रवृत्तियाँ जोर पकड़ रही हैं ? किस तरह सामूहिक घबराहट दिखाई दे रही है ? इसे समझकर भी यदि हम रोकेंगे नहीं तो यह बढ़ती जाएगी। समाज दूसरी तरफ जा रहा है, कट्टर परिभाषाएँ बन रही हैं। हिन्दू धर्म खुला है बिना मार-काट के भी हम हिन्दू बने रह सकते हैं और गर्व कर सकते हैं। यह क्यों है कि मुसलमान न होकर हिन्दू होना या हिन्दू न होकर मुसलमान होना एक अनादर है और एक नकार है। मेरा कहना है कि परिभाषाएँ तो खोली जानी चाहिए। मेरा एक उपन्यास है- ‘खाली जगह’  उसमें सबसे सुरक्षित जगह हमने स्कूल बना रखा है। वहाँ भी बम फटता है। इसका मतलब कोई जगह सुरक्षित नहीं है और कुछ भी सुरक्षित नहीं है। मैं ये कहना चाहती हूँ कि हमारे समाज में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

उषा – आपकी कुछ रचनाओं का यूरोपियन भाषाओं में अनुवाद हुआ ,क्या अनुभव रहा ? हिन्दी अंग्रेजी के बारे में क्या सोचती हैं ?

गीतांजलि श्री – अनुवाद संवाद होता है। ये सच है कि यूरोपियन भाषाओं में मेरी बहुत सी किताबों का अनुवाद हुआ है। विश्वविद्यालयों में अनुवाद भी हुआ है और काम भी हुआ है। ‘माई’  उपन्यास इटली , कोरिया और रुस के पाठ्यक्रम में लगी है। ‘हमारा शहर उस बरस‘ पर इटली में अलेक्सांद्रा कांसेलारो ने काम किया हैं ,उन्होंने मुझसे बहुत से सवाल पूछे और काफी बातचीत हुई । ‘तिरोहित ’ के बारे में बाहर लिखा गया ,बुलाया गया ,बातचीत हुई लेकिन भारतीय भाषाओं में न छपा और न ही काम हुआ। अंग्रेजी से हमारा संवाद है लेकिन अपनी भाषाओं में आपस में नहीं है। आपस में संवाद का न होना खटकता है।
जहाँ तक हिन्दी- अंग्रेजी का सवाल है तो हिन्दी भाषा हमारी अपनी भाषा है, वह हमारी चेतन अवचेतन से जुड़ी हुई है। मेरी हिन्दी मेरा धन है, इसे मैं बचा के रखूँगी लेकिन आप के पास कोई चीज है तो मैं उसे पाना चाहूँगी। पर यदि हम ये कहें कि हिन्दी हमारा धन है और अंगे्रजी हमारा अभिमान तो यह गलत है।

गीतांजलि श्री से बात – चीत का विडियो

उषा – क्या आप परम्परा में विश्वास करती हैं ?

गीतांजलि श्री – बिल्कुल। हमारी संस्कृति हमारा इतिहास हमारी परम्परा हमें रचती है, हमें गढ़ती है। परम्परा से हम जुड़े हुए हैं। परम्परा अच्छी चीज है वह जीवन्त है। परम्परा की अपनी बढ़त और अपना बहाव है। वह कोई मरी हुई चीज नहीं है। वह कला ,नृत्य ,रंगकर्म सबसे जुड़ी हुई है। परम्परा समृद्धि ह,ै उसके बिना हमारा अस्तित्व ,व्यक्तित्व ,कृतित्व कुछ भी नहीं है। यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि हमने परम्परा को संकीर्ण बना दिया है यही नहीं उसे कठोर परिभाषाओं में बाँध दिया है।

उषा – आज के संदर्भ में प्रेमचन्द को आप किस रुप में देखती हैं ?

गीतांजलि श्री – उस समय के बुद्धिजीवियों और प्रेमचंद के सामने यह बड़ी चिन्ता थी कि आज़ाद भारत का क्या स्वरुप क्या होगा और हमारा भारतीय समाज़ कैसा होगा। इन्हीं चिन्ताओं को उन्होंने अपनी कहानियों में व्यक्त किया है। कहीं-कहीं तो वे अपनी बात जोरदार तरीके से रखते हैं पर कहीं-कहीं सीख देने लगते हैं। यकीनन उन्हंोंने समाज को दिशा दी है लेकिन शिक्षा देना थोड़ा अदृश्य होना चाहिए था ,बावजूद इसके वे साहित्य सम्राट थे। आज के संदर्भ में देखें तो बहुत वैविध्य आया है न सिर्फ विषय के क्षेत्र में बल्कि भाषा और उसके शिल्प के क्षेत्र में भी। उनके समय केवल दलित थे अब दलित स्त्री आ गई है, उस समय केवल आदिवासी थे अब आदिवासी स्त्री आ गई है। इसके अतिरिक्त भारी मात्रा में किन्नर आ गए हैं जिन्हें बहुत कुछ कहना है। इससे हिन्दी साहित्य का फलक तो बढ़ गया है लेकिन बहुत कुछ खराब भी लिखा जा रहा है।

उषा – आपके परिवार में पिताजी ,भाईसाहब ,पति सुधीर चन्द्र जी सभी चोटी के साहित्यकार और इतिहासकार रहे हैं। परिवार के बारे और पितृसत्तात्मक सोच के बारे में क्या कहना चाहेंगी।

गीतांजलि श्री – मेरे पिता सरकारी अफसर थे। उत्तर प्रदेश में हम बचपन में खेतों में खूब घूमते थे ,खेलते थे ,हरी मटर खाते थे। मतलब मैं परिवार से हमेशा जुड़ी रही हूँ। रेत समाधि में भी संयुक्त परिवार टूटा नहीं है। हिन्दुस्तान में संयुक्त परिवार बरकरार है बल्कि बच्चों के पलने बढ़ने का हिस्सा है। जीवन प्रणाली बदल रही है इसीलिए सब अलग-अलग रहते हुए भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।  अलग-अलग होने के कारण मुश्किलें खड़ी हो रही हैं। मैं कहना चाहती हूँ कि परिवार की नींव पुख्ता है। हमें ज्यादातर चीजें परिवार से मिलती हैं। अगर कहीं मतभेद है भी तो वह रेत है, कंक्रीट नहीं कि जिसे सुलझाया न जा सके। मेरे पति अच्छे हैं और बेहतर हुए हैं (हँसते हुए) , वे मेरी इच्छा का मान रखते हैं, मदद करते हैं। कहने का मतलब है कि वहाँ झगड़ा भी है, ध्यान भी है, नज़्ार भी है। जहाँ तक पितृसत्तात्मक सोच का सवाल है, उससे मुक्ति कहाँ मिलती है। कुछ लोगों को तराश भी लिया जाए तो भी कितने लोगों को ? घर से निकलते ही सामना करना पड़ता है भुगतना पड़ता है लेकिन हाँ इसी में रास्ते निकलते हैं नकार से तो कुछ भी नहीं हो सकता।

उषा- एक आखिरी सवाल भविष्य की क्या योजना है ?

गीतांजलि श्री – यह उपन्यास लिखकर मैं बहुत विचलित हो गई थी और सोचती थी कि खुदा बख्श कर यह कभी पूरा होगा भी या नहीं। अब पूरा हो गया तो हैरान रह गई हूँे। अपनी किताब को देखकर डरती रही (हँसते हुए )इसलिए अभी तो कुछ नहीं कह सकती लेकिन हाँ यदि लिखने के बारे में सोचा तो उपन्यास के बारे में सोचूँगी क्योंकि उपन्यास हमें छूट देता है। कहानी केन्द्रीकरण माँगती है। उपन्यास एक बिंदु या अनेक बिंदुओं से किरणें छितराने का मौका देता है और यह भाव मुझे आनंदित करता है।

अंत में हम दोनों ने एक दूसरे को धन्यवाद दिया।
-उषा राय
लखनऊ

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