शब्द की महिमा
भाव की अभिव्यक्ति है शब्द,
मानो इसको जैसे अब्द।
इनसे जुड़कर वाक्य है बनता।
मन के भाव जो व्यक्त है करता।
आगे बढ़ा तो बन गया लेख,
बड़ी- बड़ी घटना का किया उल्लेख।
घटना जुड़- जुड़ बन गई पुस्तक,
किस्सा-कहानी साथ में मुक्तक।
दोहा, सोरठा, रोला इनसे,
ग्रंथ ,उपनिषद भी हैं जिनसे।
किंतु यदि ना हों विषयोचित,
लेख परत बन होते उपेक्षित।
उचित जगह पर उचित हों शब्द,
पढ़कर उसे होते सभी स्तब्ध।
गलत शब्द यदि किए प्रयोग,
ना सुधरे चाहे करो मनोयोग।
इससे पुस्तक उत्तम होती,
इससे ही गरिमा को खोती।
ये ही अलंकार से करें सुसज्जित,
ये ही मानव को करते विस्मित।
पुस्तक में रुचि यही जगाते,
भक्ति ,श्रृंगार,ओज आदि भाव ले आते।
इससे जीवन बनता जन्नत,
इसी से मानव करता मिन्नत।
इसकी कीमत जानो मानव,
यही बनाता देव व दानव।
उसके दिल की आवाज़
बंदिश में जीना,
अब और मुझे गवारा नहीं।
जो अपने हैं उन्होंने,
कभी मुझको स्वीकारा नहीं।
खामी नहीं थी ऐसी,
भी कोई मुझमें।
उनकी तरह छल-प्रपंच को,
पाली नहीं खुद में।
जो ओहदा देखकर,
खुश और नाराज़ होते हैं।
अब उनके किसी भाव का,
न हम परवाह करते हैं।
जिन्हें दंभ है ,
तिज़ोरी में बंद दौलत का।
मुझे भी ज़रूरत नहीं ,
अब उनके कभी भी सोहबत का।
मै जीती हूॅं हकीकत में,
दिखावे में कभी नहीं।
मुस्कुराती हूॅं तो दिल से,
छलावे में दबी नहीं।
मेरी यंत्रणा जिसके लिए,
मात्र आडंबर है एक।
दूर रहो मेरे जीवन से,
ऐसे रिश्ते दूॅं मैं फेंक।
दर्दे दिल का बयान,
उनसे ही किया जाता है।
जिससे रक्त का नहीं,
दिल का हमारा नाता है।
संबंध रक्त का था,
दिल किंतु पत्थर का था बना।
ऐसे पत्थरों से रिश्ता नहीं,
इमारत है सदा तना।
उन अट्टालिकाओं से मेरा रिश्ता हो,
ऐसी मुझे लालसा नहीं।
पत्थरों में पत्थर हैं रहते ,
उनसे मेरा वास्ता नहीं।
अज़ीज़ होने से पहले,
दिल के क़रीब होना ज़रूरी है।
कुछ बेगानों से अपनों को,
अपना कहना मज़बूरी है।
गैरों से अपनों पर हक जताना,
समझदारी कोई नहीं।
माना आज वक्त तुम्हारे साथ है ,
किंतु तुम ही सदा के अधिकारी कोई नहीं।
अरे! हम तो वो नगीना हैं,
जो हर जगह फिट हो जाते हैं।
ज़िंदगी शूल दे या फूल,
उसे सामान्य भाव से स्वीकारते हैं।
जिंदगी के आगे,
हाथ सदा वो ही हैं फैलाते।
जिन्हें फूलों की आदत है ,
शूल देख के जो घबराते।
जिन्हें ज़रूरत नहीं हमारी,
उनका साथ, भला हम क्यों निभाएं?
वो अपनी गली जाएं,
हम अपनी राह जाएं।
अपनी गली वो खुश हैं,
अपनी गली हम खुश।
वो बाॅंटते हैं नफरतें,
हम लेते समझ के कुश
रविकुलभूषण को महाशक्ति का आशीष
घनघोर अंधेरा छाया था,
दिक् नज़र नहीं जब आया था।
प्रभु सागर तट पर बैठे हैं,
सागर गर्जन उर पैठे हैं।
चिंता आ उसको घेरी है,
मानो उत्साह न नेरी है ।
पाहन से ध्यान में लीन हैं राम,
मन है शंकित सूझे ना काम।
रावण जय सोच अकुलाते हैं,
पराजय स्व सोच मुरझाते हैं।
कोई अरि दमित है कर न सका,
है कौन जो राम से नहीं थका?
क्यों आज वो इतना अकुलाते हैं,
रावण सम्मुख असमर्थ क्यों पाते हैं।
मन में है जो अंतर्द्वंद चला।
वह बन गया राम के हेतु बला।
रघुवंश शिरोमणि कुछ बोले,
चुप्पी तोड़े इत- उत डोले।
हे मित्र! यह युद्ध कैसे जीतें?
शक्ति उतरीं रावण पीछे।
रावण माॅं का आह्वान किया,
माॅं ने है उसका मान किया।
दशरथ नंदन भाव-विभोर हुए ,
रुंधा ऊर तम चहुॅंओर हुए।
माॅं अन्यायी के संग हुईं,
भला यह है कैसी जंग हुई!
गहन वेदना राम को घेरे है,
बड़े आकुल प्रभुवर मेरे हैं।
संगी- साथी सब शांत हुए,
सब के सब बड़े ही क्लांत हुए।
धराशाई तेज लखन का हुआ,
चिंतित मन मानव, वानर का हुआ।
धीरज प्रतिमा आज विचलित है,
जाने क्या करता इंगित है।
वातावरण बड़ा ही विषम हुआ,
सब सोचें जाने क्या खम है हुआ।
व्यथित प्रभु अनियंत्रित हुए नहीं,
संयम बस कुछ क्षण खोए कहीं ।
विधि- विधान को सोचे हैं प्रभु राम ,
इसको ले चिंतित जानकी के प्राण।
महाशक्ति अन्याय के साथ खड़ी,
मुझे करके पराया माॅं हैं तड़ी।
शक्ति का भयानक खेल यह युद्ध ,
वाणों को निरखें राम प्रबुद्ध।
प्रभु पतन के बड़े संहारक हैं,
पैने शर उनके अरि मारक हैं।
पर महाशक्ति ने रोक दिया,
मानो खंजर है भोंक दिया।
अधर्मी रावण शक्ति का सगा बना!
राम अपना होकर ठगा बना।
संशय जब सबके मन में थे,
जांबवान सकारात्मकता के संग में थे।
शक्ति पूजा का वो परामर्श दिए,
मानो कुलभूषण को हर्ष दिए।
हे प्रभु! आप न विचलित होवें,
खो आत्मबल ना विस्मित होवें।
व्याकुलता का ना कोई कारण है,
हर बाधा का यहाॅं निवारण है।
महाशक्ति का पूजन करें आप,
फिर देखें माॅं का शक्ति प्रताप।
जस रावण को आशीष मिला,
माॅं का उसको बक्शीश मिला।
तस आपको भी मिल जाएगा,
सिंहासन उसका हिल जाएगा।
आतंकी बन बैठा अन्याय स्रोत,
महाशक्ति से प्रभु होवें ओत-प्रोत।
हर संशय मन से दूर करें ,
ना स्वयं को इतना मजबूर करें।
अराजक की अराजकता होगी शीघ्र ध्वस्त,
प्रभु महाशक्ति के होंगे विश्वस्त।
अराधन संशय तज आप करें,
प्रभु यश ,प्रताप टारे न टरे।
जब तक शक्ति ना अर्जित हो,
प्रभु रणभूमि से वंचित हों।
निश्चित माॅं का आशीष मिलेगा,
रावण पर वज्र कुलिस गिरेगा।
लखन महासेना के हों नायक,
सब शुभ होगा मंगल दायक।
मार्गदर्शक मध्य में हों अंगद,
टूटेगा छलिया का निश्चित मद।
दक्षिण में होंगे जांबवान,
वामा दिक् में होंगे हनुमान।
सुग्रीव, विभीषण दलपति सारे ,
यत्र- तत्र विचरें ज्यूॅं नभ में तारे।
हे प्रभु ! निराशा झट त्यागें,
झुकें महाशक्ति के बस आगे।
जांबवान की ऐसी दृढ़ता देख,
प्रभु शक्ति अराधना हेतु गए बैठ।
वो कुशल सैन्य संचालक थे,
पितु सम सेना के पालक थे।
प्रभु आसन पर हुए विराजमान,
असिद्धि को तज सिद्धि को जान।
एक सौ आठ नीलकमल आया था,
माया ने एक विलगाया था।
जब जाप अंतिम छोर पर था,
आशा प्रभु का बड़ा जोर पर था ।
माॅं पग प्रभु देख हुए हर्षित,
करना था जलज उन पर अर्पित।
कर ज्यूॅं ही आगे बढ़ाए थे,
लखि ना पंकज घबराए थे।
प्रभु ध्यान अचानक भंग हुआ ,
शुरू कंपित होना सब अंग हुआ।
निर्मल पलकें अब उनकी थीं खुली ,
वारिज स्थान रिक्त कौन किया खली?
जप पूर्ण का समय निकट अब था ,
प्रभु सम बाधा बड़ा विकट तब था।
तज आसन प्रभु को ना उठना था,
जप को ना मध्य में रुकना था।
जप भंग असिद्धि होगी तय,
प्रभु अश्रु धारा बहे नयन से द्वय।
प्रभु का अंतर्मन करें क्रंदन,
क्यों सदा विरोध करे अभिनंदन।
धिक् यह जीवन साधन सारे,
जानकी उद्धार में जो हारे।
अब प्रिया की मुक्ति दुष्कर थी,
वह शक्ति सामान्य नहीं पुष्कर थी।
अगले क्षण प्रभु धीरज धारे,
दीनता को वो झट से हारे।
बाधा सम्मुख ना झुकना था,
किसी शर्त पर जप ना रुकना था।
दृढ़ता ,अदैन्यता रघुनंदन गाहे,
वो कर डाले जो वो चाहे।
माॅं कहती थी उन्हें राजीव नयन,
यह सोच प्रभु किए उन्नयन।
प्रभु पुरश्चरण की ओर बढ़े,
कौशल्येय के नेत्र ही माॅं को चढ़े।
राजीव नयन अब होगा अर्पित,
हर बाधा अब होगी मूर्छित।
अंतिम जप प्रभु का अब पूर्ण होगा,
दशानन का दंभ अब चूर्ण होगा।
प्रभु तुरत तुणीर उठाए थे,
जो ब्रह्मशर से भर कर आए थे।
ब्रह्मास्त्र दाएं कर में प्रभु थे थामें,
दाएं नेत्र को लगे वो संधाने।
बस, नेत्र भेदन होने वाला ही था,
तब सकल ब्रह्मांड काॅंपने लगा।
महाशक्ति प्रभु के सम्मुख थीं प्रकट हुईं,
धर्म रक्षक की विपदा ना विकट हुई।
हे राम ! धन्य तुम भक्ति भी धन्य ,
राघव वर लो तुम वर्ण्य विषय।
प्रतिमा माॅं की देख प्रभु हुए हर्षित,
प्रभु सम्मुख माॅं थीं प्रत्यक्ष उपस्थित।
बामा पग असुर स्कंध पर था,
दायाॅं पग सिंह के ऊपर था।
अस्त्र-शस्त्र सारे कर शोभित थे,
जो कर रहे प्रभु को मोहित थे।
मुख मंडल पर मुस्कान विराजित था,
अब ना प्रभु हित कुछ बाधित था।
सकल सुषमा इस सम अब लज्जित था,
भयंकर युद्ध का राग अब गुंजित था।
माॅं वामा दिक् वीणापाणि थीं,
दायाॅं दिक् नारायण नारी थीं।
लंबोदर बाएं पार्श्व उपस्थित थे,
बाएं मे़ उपस्थित प्रभु कार्तिक थे।
शक्ति का अद्भुत स्वरूप यह देख,
श्रद्धा से भरे प्रभु गह विवेक।
माॅं चरण कमल प्रभु किए वंदन,
गह विनम्रता माॅं का किए अभिनंदन।
विजयी भव आशीष का हाथ माॅं धर दी सर पर ,
ऐसा कह पुरुषोत्तम गात प्रवेश गई कर।
फिर राम- रावण का युद्ध हुआ,
जग चौंका सत्य प्रबुद्ध हुआ।
सत्य- असत्य दोनों टकराए थे,
अब प्रभु ना तनिक भी घबराए थे।
धर्म जीता अधर्म जब हारा था ,
जग से तम को प्रभु ने मारा था।
देवलोक से पुष्प की वर्षा हुई,
रामविजय कि वहाॅं भी चर्चा हुई।
आशा विजयी निराशा हुई पराजित,
यह विजय दिखाता प्रतिमान सांस्कृतिक।
अब सीत माॅं की मुक्ति निश्चित थी,
खुशी भी मानो अब हर्षित थी।
यह कथा है कोई सामान्य नहीं,
इसने मानव अंतर्द्वंद्व की कथा गही।
जो संघर्ष करना सिखलाती है,
जिजीविषा का राह दिखाती है।
यह है दो जन का युद्ध नहीं,
असत्य विरुद्ध सत्य के संघर्ष की कथा यही।
जीवन में यदि ऐसा होवे ,
सत्- असत् के संग यदि मिल जावे।
मानव ना इससे घबराना तू,
प्रभु का स्मरण कर जाना तू।
ऐसा ना सदा ही होता है,
असत्य सदा ही सत्य से रोता है।
आज भी खल को हैं सज्जन मिल जाते,
जिससे मुख मंडल उनके खिल जाते ।
पर अंत में विजयी सत् ही होता,
पराजय सदा ही है असत् गहता।
बदलती औरत
बेजान तस्वीर थी औरत जब,
तब वो बड़ी ही अच्छी थी।
अब उसमें है जान आ गई,
अब वो माथापच्ची थी।
शूल- बबूल सा लगी चूभने,
वो है बोलना सीख गई।
बाजू पर विश्वास जगा ली,
अब ना लेने भीख गई।
कच्चे धागे सा रिश्ते टूटे,
ना पहले से टिकाऊ हैं।
उसे भी अनुभूति होने लगी है,
अब ना बनी बिकाऊ है।
जि़म्मेदारी अब भी निभाए,
पर ना घुट- घुट जीती है।
सपनों को तंदूर में झोंक के,
गरल ना अब वो पीती है।
अरमानों को अब ना रौंदे,
ना जख्मों को सील सके।
खुशी की चादर को अब उसके,
ना ले भग कोई चील सके।
जुल्फों को अब वो बिखराकर,
खुद पर भी इतराती है।
निर्णय अपना खुद ले लेती,
ना ,ले दूजे से भरमाती है।
सपने , ज़िम्मेदारी को पृथक कर,
अब दोनों हित जीती है।
स्व-सपनों को आग लगाकर,
ना ज़िम्मेदारी पर खीजी है।
प्लेन, रेल अब वो है चलाती,
खोल के पंखों को इतराती।
उनके पर कोई काट सके ना,
नील गगन को छू हर्षाती।
ढोल सा अब कोई पीट सके ना,
पीट दिया तो जीत सके ना।
ईंट दिए तो पत्थर पावो,
अब उस पर कोई लीक लगे ना।
कोर्ट – कचहरी वो कर जाती,
जेल की रोटी वो है खिलाती।
पुलिस को अपने ज़ख्म दिखाकर,
इंसाफ की अब वो गुहार लगाती।
अपने हक को जान गई वो,
अस्तित्व अपना पहचान गई वो।
इसीलिए तो लगी खटकने,
स्व-हित खातिर लगी भटकने।
अब ना पसंद करता है समाज,
आरोप-प्रत्यारोप लगाता है आज।
अब उसके अंदर भी खम है,
अब उसका गम थोड़ा कम है।
मुट्ठी भर कुछ झूठी छलिया,
छल – प्रपंच का डालें डेरा।
सबकी इज्ज़त को वो मिटाएं,
निश-दिन करतीं तेरा- मेरा।
ऐसी अधमों खुद को सुधारो,
मान- प्रतिष्ठा को ना मारो।
आत्म सम्मान को रख लो जिंदा,
स्व – सपनों हित खुद को वारो।
सबका नाम न करो बदनाम,
कार्य करो ऐसा जिस पर हो गुमान।
हक का तुम न करो दुरुपयोग,
हर कर्मों का मिलेगा भोग।
–साधना शाही,वाराणसी