राहुल भट्ट की 5 रचनाएं | हिन्दी श्री

राहुल भट्ट

4.वसन्त

चारों ओर दिखे जो मुझे हरियाली ।
कुछ अलग अलग सा नजर आऐ मुझे।
मैं कहूँ यह कैसा बदलाव है
छाही हैं जहाँ घटा हरियाली की।
 लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त।
पक्षियों की प्रभात की  ध्वनि से ।
मन प्रसन्न हो उठता है।
आजकल का मौसम बडा़ सुहाना।लगता है
जैसे खुशी से झूम उठे।
कोयल  की कू – कू कर मन खुशी से भर उठता है।
लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त। 
खिले है जहाँ  पीत ,रक्त ,हरित पुष्प।
देखकर मन उल्लास से भर उठता है‌।
मैं अपने मन से कह उठता हूँ। 
 फाल्गुन क्यों अपने में ऐसा  महत्व रखता है।
यह सोच में पड़ जाता हू़ँ।
वंसन्त क्यों अपने में ऐसी सुन्दरता रखता है। 
लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त।
वंसन्त का नजारा देखकर ,
मन प्रसन्न हो उठता है।
वंसन्त आया वंसन्त आया कहां करता हूँ मैं।
वंसन्त की चटकती धूप से।
मन ही मन उदास हो उठता हूँ।
याद कर बचपन की उन यादों को।
जिनमें कभी प्रकृति के साथ बड़े ही आनंदित रहते थे।
इन यादों को याद कर कभी उदास तो कभी खुश हो उठता हूँ।
लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त।
देख उन नन्हें पुष्पों को ।
जो त्याग कर अपनी माँ के बिना भी प्रसन्नचित है।
यह देखकर मन ही मन सोचता हूँ की प्रकृति क्यों ।
अपने में इतनी अनोखी है।
जो हमें हर दुख से लड़ना हमें सिखाती है।
 लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त…।
प्रकृति और वंसन्त जैसे माँ  बेटे का रिश्ता है।
दोनों वर्षभर में एक ही बार मिल पाते है।
बडा़ अनोखा है प्रकृति और वंसन्त का रिश्ता।
वंसन्त अपनी माँ का सबसे लाडला ।
माँ ने उसे इतना अनोखे और प्रेम से सजाया है।
कि हर पुष्पों की उसे माँ बनवाया है।
लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त…।
यही ही यादें नहीं हैं वंसन्त की।
यादों को याद कर पाना बडा़ ही दुखद हो जाता है।
वंसन्त अब विदा होने को आई।
पर वह प्रकृति का श्रृंगार कर विदा हो गई।
लो वंसन्त आया वंसन्त आया…।
ये रिश्ते है बडे अनोखे ।
बिना देने से नहीं बनते रिश्ते ।
कुछ अनोखे पल बन जाते है रिश्ते।
कुछ इसी तरह है माँ बेटे का रिश्ता।
वंसन्त अब दुखी होकर विदा होने को आई।
प्रकृति गद् गद् हो उठी है।
 यही ही रिश्ता है वंसन्त और प्रकृति का।
 लो आ गया वंसन्त आ गया वंसन्त….।

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