1. परिवार
संस्कृति न जाने कहाँ से कहाँ चली गयी है,
अब तो परिवार की परिभाषा ही बदल गयी है।
पहले परिवार मे होते थे दश-बारह लोग,
अब तो चार मे ही सिमट कर रह गयी है।।
चाचा-चाची, दादा-दादी परिवार के ही अंग है,
लेकिन वर्तमान मे परिवार ने बदले अब ढंग हैं।
माता-पिता और बच्चों तक ही रह गया हो जहाँ परिवार,
वो कैसे कह सकते हैं कि हम सब संग है।।
हम तो वो थे जहाँ सम्पूर्ण धरती ही परिवार थी,
हम तो वो थे जहाँ छोटे-बड़े रिस्तो की दरकार थी।
क्या होगा अब उस एकाकी समाज का,
जहाँ परिवार की परिभाषा एक कमरे मे कैद हो गयी हो।।
कहते हैं कि आज विश्व परिवार दिवस है,
परिवार से ‘परि’ गायब, अब केवल ‘वार’ की हवस है।
इक जमाना था जहाँ पड़ोसी भी परिवार होता था,
अब तो एक घर मे ही कई परिवार हो गए हैं।।
अगर वास्तव में हम परिवार बनाना चाहते हैं,
अगर वास्तव मे विश्व बंधुत्व को अपनाना चाहते हैं।
ध्यान रखें पाश्चात्य सभ्यता केवल सपने दिखाएगी,
हमें पाश्चात्य सभ्यता छोड़ अपनी संस्कृति अपनाना होगा।।
2. नंगा बादशाह से बड़ा
जीता वही जो अपनी बात पर अड़ा।
क्योंकि नंगा बादशाह से बड़ा ।।
झूठ-फरेब, चोरी-बेईमानी का लगा है जमावड़ा।
क्योंकि नंगा बादशाह से बड़ा ।।
सच अपनी लाज बचाये है एक तरफ खड़ा।
क्योंकि नंगा बादशाह से बड़ा ।।
हर समय, हर क्षेत्र में,हर गली के खेत में।
सच है एक तरफ पड़ा।
क्योंकि नंगा बादशाह से बड़ा ।।
सच तो यह है कि सफलता तो मिलती है हि उसको।
जो लक्ष्य बांधकर चल पड़ा।
क्योंकि नंगा बादशाह से बड़ा ।।
राम के जमाने रावण का, कृष्ण के जमाने मे कंस का ।
गाँधी के जमाने मे फिरंगियों आतंक बढ़ा।
क्योंकि नंगा बादशाह से बड़ा ।।
3. सावन
चैत्र माह में होती नव संवत्सर की शुरूआत।
लेकिन सावन ही देता त्यौहारों की सौगात।।
नागपंचमी रक्षाबंधन और हरियाली तीज।
ये बोते हैं जीवन मे मिलकर खुशियों के बीज।।
बड़ा सुहावन माह ये बारिश का राजा कहलाता।
लिए हिलोरें मन मयूर नित-प्रति नृत्य दिखाता।।
झम-झमा-झम बारिश, कल-कल करती नदियाँ।
इंदुरी, कजरी और मल्हार की बीत गयी वो सदियाँ।।
सावन,साजन साँसों की खुसबू को महकाता।
कभी-कभी ये प्रियतमा की विरहाग्नी बढाता।।
हरे-भरे पानी से लब-लब देखे थे वो खेत।
ना जाने वो बादल भी थे कहाँ से लाते खेप।।
गाँव गली और गलियारों का बीता एक जमाना।
घुटने भर कीचड़ से जब होता था आना-जाना।।
हर-घर में पकवान बनें और गाएँ कजरी इंदुरी।
कभी-कभी खाने को मिलती थी सबको घुंघुरी।।
भरा मिले उल्लास हृदय मे घर मे रिस्तेदारी।
सजी दुकानें मिष्ठान्नो से, राखी की भरमारी।।
बदल गया माहौल वो सारा जबसे आया कोरोना।
सावन हो या भादों सूना रहता कोना-कोना।।
4. मोबाइल
इंशान का तो सिर्फ अपने मतलब से नाता है।।
एक मोबाइल ही तो है जो हर पल साथ निभाता है।।
जो मेरे संग रोता, गाता और हर पल मुझको हसाता है।
ये मोबाइल ही है जो अपनों की परिभाषा बताता है।।
अपना तो वो है जो दु:ख-सुख मे हर पल साथ निभाता है।
ये केवल यंत्र नहीं, परिवार के सदस्य की भूमिका निभाता है।।
माना की मोबाइल खुद मुझसे बात नहीं करता ।
पर मेरे बात करने पर मुँह मोड़कर नहीं जाता है।।
मैं जो कुछ भी पूछता हूँ बड़े प्यार से बताता है।।
माॅ-बाप तो नहीं बन सका पर कम नहीं नजर आता है।।
खुद सिंधु है ये ज्ञान का लेकिन अहं नहीं दिखाता है।।
ये है समभावी हर किसी से समान रिश्ते निभाता है।।
माना कि इसमें दोस भी बहुत से हैं,
लेकिन ये इसकी सरलता को दिखाता है।
जिसको जिसकी जरूरत है नि:संकोच,
वो वही ले जाता है।।
इसका कोई अपना-पराया नहीं।
सबसे बराबर का नाता है।।
आज मोबाइल जीवन का अहम् हिस्सा बन गया है।
क्योंकि एक मोबाइल ही है जो कभी भी नहीं सताता है।।
5. मौका परस्त मानव
ये जिन्दगी मरुद्यान जैसी हो गई है,
जहां पेड़ तो बहुत है लेकिन गर्मी बहुत घनी है,
जहाँ पानी केवल दिखता है मगर होता कहीं नही है,
जहाँ प्यास को बुझाना बड़ी शर्त से कम नहीं है।
यहाँ खुश रहने की बात है दूर हर राह काटों की बनी है
कुछ समझ नहीं आता कहाँ चलूँ,
जहाँ चलने की सोचता वहां जमीन ही नहीं है।
कभी-कभी मन मे बड़ी वेदना होती यह सोचकर,
इस धरा के श्रेष्ठ प्राणी की मनो दशा को देखकर,
जिसको कहते हैं सभी श्रेष्ठ ना जाने क्या देखकर।
जिसमें न दया है, न प्रेम है अपने सजातियों के खातिर,
वो भला क्या रोयेगा कटते हुए पेड़ों को देखकर ।
अब तो मानव को मानव कहने मे भी शर्म आती है,
न जाने किस मिट्टी की बनी ये मानव जाति है,
अरे यहाँ तो प्यार करने वालों से घृणा की जाती है,
इतना मौका परस्त हो गया है ये मानव,
यहाँ तो दोस्ती भी मतलब के लिए की जाती है।
जय तिवारी रीवा (म0प्र0)
जन्म- 10 सितम्बर 1988 रीवा म0प्र0
शिक्षा- एम0ए0 (अंग्रेजी साहित्य)
व्यवसाय- शिक्षक